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त्रिस्तुतिक-मत--मीमांसा ।
छंद का दोष और अशुद्ध प्रयोग का दोष दूर हो जाता है इस लिये यह दोनों भूले श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी की नहीं है किंतु जैन भिक्षुजी के अविचार की ही है !"
लेखक जी ! 'तेजेन' और ' सो रिपून् ' ये दोनों अशुद्धियां जैन भिक्षुजी के अविचार की नहीं हैं। आप के बुड्ढे दादे के अज्ञान की हैं - राजेन्द्रसूरिजी के अज्ञान से जनित हैं जिन्हें ठीक करने की चेष्टा से आप खुद अनजान बन रहे हैं क्यों कि 'तेजस्' शब्द किसी प्रकार भी अकारान्त बन कर आप के सूरिजी और आप की पंडिताई नहीं साध सकता, ' तिज्' धातु से अच् प्रत्यय लगा कर ' तेज ' शब्द बनाने की युक्ति भी आप की बुद्धि को बखान रही है, क्यों कि ' अच्' प्रत्यय तो कर्तृ- अर्थ में होता है इस लिये इससे बने हुए ' तेज ' शब्द का अर्थ होगा ' तीखा करने वाला ' विद्वत्ता की टोंग तोडने वाले लेखक जी ! इस अर्थ से क्या आप की अभीष्ट सिद्धि हो जायगी ? गुणवाचक भावप्रत्ययान्त ' तेजस् ' शब्द का मतलब द्रव्यवाचक कर्त्रर्थक ' अच् ' प्रत्ययान्त ' तेज ' शब्द से कदापि नहीं निकल सकता, लेखक जी यदि ' तिज्' धातु से भाव अर्थ में ' अल् ' या ' घञ्' प्रत्यय लगाते तब तो अपनी कल्पना सार्थक हो भी जाती. पर ऐसा करे कौन, इतनी बुद्धि और व्याकरण-बोध लावें किस बाजार में से ! | लेखकराज ! यदि आप को तो इतना बोध नहीं है परंतु आपके गुरुजी भी तो पंडिताई का दावा करते हैं क्या उन्हें भी इस बात का पता नहीं लगा कि ' तेजस् ' शब्द का अर्थ अच् प्रत्यान्त ' तेज ' शब्द से कैसे मिलेगा ? अथवा ठीक है, जिन्हे अपन ही प्रिय है उन को शुद्धाशुद्ध को परीख ने की शक्ति
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