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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
इन समस्त पदोंको व्यस्त मान के आंखों आडे कान करना चाहते हो? याद रहे कि इस प्रकार की आपकी चालाकियां यहां पर नहीं चलेंगी, यदि आप की निर्वलता के खातिर यह मान भी लें कि राजेन्द्र मूरिजी का आशय " नन्दैके विक्रमात् " इस पर था तो भी आप की वकालत सफल नहीं होगी क्यों कि ऐसा मानने पर भी वह प्रयोग निर्दोष नहीं हो सकता “ अङ्कानां वामतो गतिः " इस सिद्धान्त को जैनभिक्षु और हम अच्छी तरह जानते हैं, पर " त्रयस्त्रिंशनन्दैके शते " इस वाक्य में रहे हुए " त्रयस्त्रिंशत् " इस पद का तो वर्षों के और " नन्दैके " इसका 'शते ' इस के साथ अन्वय कराने वाला न्याय सिद्धान्त तो त्रैस्तुतिक मत के साथ जनमा हो तो मालूम नहीं, लेखक जी! क्या ऐसा सिद्धान्त आप बता सकते हैं ? यदि कहा जाय कि यह बात तो नहीं है तो फिर " त्रयस्त्रिंशन्नन्दैके शते " इस विषम वाक्य से (१९३३) एसा अर्थ कहां से पाओगे ? क्यों कि इन समस्त शब्दों से तो 'विक्रम से ( ३३०० ) तेतीस वी शताब्दी में ' ऐसा ही सीधा अर्थ निकलता है दूसरा नहीं।
(६-७) इन दो अशुद्धियों का समाधान लेखकजी इस रीति से करते हैं,
“ तेजसा के स्थान में तेजेन लिखना ” (७) स्वरिपून् चाहिये उस के स्थान में सो रिपून लिखना यह दोनो खोट ( भूल ) जैनभिक्षुजी के संस्कृत की अज्ञानता वा शब्दज्ञान की अनभिज्ञता का बहूत अच्छा फोटो दिखाई देता है ! ! क्यों कि -तेजस् शब्द सकारान्त है, तथापि प्रत्यान्तर ( याने ) तिन् निशाने धातु से अच् प्रत्यय करने से अकारान्त भी हो सकता है सरिपून के स्थान में स्वरिपून् लिखने से
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