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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
स्थान में राष्ट्र कूट यह दोनों शब्द देशवाची लिखना ये भूल तो जैन भिक्षुजी के अज्ञान खजाने की ही है"
वाह जी वाह ! न्याय की टांग तोडनी तो ठीक सीखे हो जरा दिमाग स्थिर रक्खो और बुद्धि को काम में लाओ! । मुंहसे तो कह रहे हो कि 'राष्ट्र वंशीय' ये दोनों शब्द सर्व वाची हैं तो फिर आपकी बुद्धि कहां चली गई है कि देशवाची शब्द के विषय में सर्व वाची शब्द प्रयोग को शुद्ध कहते हो ?। बेचारे राजेन्द्रमरिजी ने तो वे समझ से इस मुजब लिख दिया परंतु तुम तो जान बुझ के इस अशुद्ध प्रयोग को शुद्ध ठहराने की कोशिश करते हो, यही आश्चर्य और खेदजनक विषय है ! । क्यों कि 'राष्ट्र' यह किसी वंश विशेष का नाम नहीं है किंतु 'राष्ट्रकूट' यह वंश विशेष का नाम है जिसे भाषा में ' राठोड' बोलते हैं इस वास्ते यहां पर ‘राठौड' की प्रकृति ' राष्ट्रकूट' ही लिखना समुचित है, 'राष्ट्रवंशीय' लिखना और उसे शुद्ध कहना राजेन्द्रमूरिजी और लेखकों की वडी भारी भूल है ।
(५) इस अशुद्धिका निराकरण लेखक महोदय अपनी दोनों आंखें मुंद के इस प्रकार करते हैं
" संवच्छते त्रयत्रिशन्नन्दैकविक्रमाद वरे 'विक्रमात् विक्रम से त्रयस्त्रिंशन्नन्दैके शते अंकस्य वामा गतिः इस न्याय से (१९३३ ) वरे ( श्रेष्ठ ) संवत् में इस आशय से संवच्छते त्रयस्त्रिंशन्नन्दैके विक्रमाद्वरे ऐसा विशुद्ध लेख श्री विजयराजेन्द्र सूरिजीने लिखवाये थे"
लेखक जी! जरा आंखे खोल कर देखो मूल लेख में " नन्दैके विक्रमाद् " ऐसा नहीं है, किंतु " नन्दकविक्रमात् " ऐसा है तो क्या यह आप की चाल बाजी नहीं है कि " नन्दैकविक्रमात् "
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