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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
विगैरह का नशा लेते मालूम होते हैं, क्यों कि बार बार जैनभिक्षु के गुरू को अंध बताते हो इस लिये तुम्हारा सब कारभार नशे में ही होता है ऐसा जाना जाता है, अथवा तो तुम्हारी बुद्धि ही फिर गई है इनके सिवा तीसरा कुछ भी कारण नहीं जान पडता । लेखक ! इस आप के लिखान से तो आप ही खुद अज्ञान के अंधेर से घेरे हुए मालूम देते हैं क्योंकि जैनभिक्षु के तो गुरू क्या आज तक कोई भी अंध नही हुआ और होगा भी नहीं, जैनभिक्षु की परंपरा ही ऐसी नहीं कि चमार, मेणा, नाई, कुमार, विगैरह अस्पृश्य और जुंगितों को मुंड के देखते भी अंधे बन जाय, यह रीति तुम्हारे ऐसे शिष्यों के लोभी साधुओं के आगे ही सफल होगी, जैनभिक्षु की पवित्र परंपरा में नहीं।
लेखक अपने राजेन्द्रसूरिजी की अशुद्धियों को लेखक या खोदने वाले के शिर महते हैं पर इस जाल-साजी को बुद्धिमान लोग कैसे सत्य मानें गे ? क्यों कि एक दो या चार अशुद्धियां हों तब तो लेखकादि के शिर भी चढ सकती है पर एकेक श्लोक की आठ २ दश २ अशुद्धियां लेखक या खोदने वाले की नहीं हो सकती क्या राजेन्द्रसूरिजी देख सुन नहीं सकते थे जो खास अपने लेखों की भी अशुद्धियां देखी सुनी नहीं ? । असल बात तो यह है कि वे पढे लिखे ही इतने ही थे इस लिये ज्यों त्यों गडबड लिख मारते और अपना टट्ट चला लेते थे, यह मेरा कथन आगे जाते अछी तरह सिद्ध हो जायगा ।
(२-३) “ सूरिश्वर" तथा " महाराज कोरटा नगर " इन दो अशुद्धियों का समाधान भी इसी प्रकार का निर्जीव है।
(४)" राष्ट्र वंशीय यह दोनों शब्द तो सर्ववाची है उस के
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