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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
के शिष्यों को श्वेत वस्त्र की अनुज्ञा है, सो यह उत्सर्गमार्ग विपयक-प्रतिपादन जैन भिक्षु को तो क्या सब को प्रमाण है, क्यों कि श्वेत मानोपेत-जीर्णप्राय इन तीन विशेषणों से युक्त साधु के योग्य वस्त्र यदि मिल जाय तो हमें उसको रंगने की कुछ जरूरत नहीं । इसी प्रकार ओर जगह भी जो श्वेत वस्त्रों का विधान है वह उत्सर्ग ( कारण विनाका) मार्ग है. लेखक महोदय ! कुछ सोच विचार के लिखा करें, क्यों कि दूसरों को भांड बनाने की चेष्टा करते आप खुद ही भांड न बन जाय यह ख्याल रखना।
यह बात भी लेखकों को विदित होनी चाहिये कि वर्णपरावतित वस्त्रों को जैन मुनि पूजा मान्यता के लिये नहीं रखते किंतु शास्त्रानुसार संयम की रक्षा और आत्म-रक्षा के लिये रखते हैं, क्यों कि विवर्णवस्त्रों से पूजा मान्यता नहीं होती, पूजा मान्यता होती है बाह्याडंबर से, जैसे आप तीन थुई वालों के पूज्य गुरु करा रहे हैं । ___ अब लेखक जैन भिक्षु की बताई हुई राजेन्द्रमूरिजी की अशुद्धिओं का झूठा समाधान करनेकी शुरूआत करते हुए अपनी सजनता को प्रगट करते हैं कि,
“ ये सब श्रीविजयराजेन्द्र सूरिजी के संस्कृत ज्ञान खजाने का तो नमूने नही है लेकिन अंध गुरूकी अंध श्रद्धा के भेष विडंबक जैनभिक्षुजीने काली काशी में संस्कृत पढ के अपने अज्ञान खजाने से प्रगट किये है "!! क्योंकि (१) "विंबं लिखकरके फिर कारापिता लिखना" यह अशुद्धि ( भूल ) लेखक की अथवा खोदनेवालेकी और जैन भिक्षुजी की अज्ञानता की है "
लेखक जी ! आप भी अपने गुर्वादिकी मवाफिक भांग
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