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त्रिस्तुतिक-मत--मीमांसा ।
है " इति कट्ट-इतिकृत्वा इति हेतोः ", इस का अर्थ पहले लिख दिया है, इस कथन में किसी को शक हो तो पूर्वोक्त ग्रन्थ देख लेवे । इस सब विवेचन का तात्पर्यार्थ यह मिला कि यदि नवीनतादि कारण से वस्त्र की शोभा हटाने के लिये उस का वर्ण बदल किया जाय तो दोष नहीं किंतु गुण है, यह मात्र युक्ति ही न समझिये यह एक न्याय प्रसिद्ध सिद्धान्त है, जैनों के मान्य न्याय के ग्रन्थ 'रत्नाकरावतारिका' में क्या लिखा है लेखकों ने देखा है ?
उस में इस प्रकार लिखा है__ " विशेषप्रतिषेधस्य सामान्यविधिनान्तरीयकत्वात् "
याने विशिष्ट वस्तु का प्रतिषेध सामान्य का विधिप्रतिपादक होता है, जैसे,
" गुठ्विणी वालवच्छा य पवावेउं न कप्पइ "
अर्थात् गर्भिणी और बाल बच्चे वाली स्त्री को दीक्षा देनी न कल्पे, इस से यह सिद्धान्त निकला कि इन के सिवा दूसरी स्त्रियों को दीक्षा कल्पे, इसी प्रकार यहां पर भी विभूषा ( शोभा ) के सिवा दूसरे कारणों से वस्त्रोंका वर्ण बदल करना यह एक सीधा न्याय मार्ग है, यदि लेखक महाशय उत्तराध्ययन-टीका को मुंदी
आंखों से देख के यह कहें कि वर्ण परावर्तित वस्त्र भांडों का वेश है तो मैं दिलगिरी के साथ कहूंगा कि आप जरा आंखों को तकलीफ दे कर के देखें कि किस जगह भांडों का वेश कहा है, यह बात ओर है, यदि आप के गप्प पुराण में लिखा हो तो मैं नहीं कह सकता, बाकी उस में तो यह कहा है कि पार्श्वनाथ के शिष्यों के लिये रक्तादि वर्ण वाले वस्त्रों की अनुज्ञा है और वर्द्धमान
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