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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा |
नहीं है, इत्यादि अनेक शास्त्रों के प्रमाणों से मध्यस्थ पाठक महोदय बखूबी समज सकते हैं कि साफ नये वस्त्र का वर्ण परावर्तन करना शास्त्र विरुद्ध नहीं बल्के शास्त्र प्रतिपादित मार्ग है, शास्त्र विरुद्ध कार्य तो यह है जो जीर्णप्राय वस्त्र भी नहीं लेना और नया लेकर उसका वर्ण बदल भी नहीं करना, जैसे लेखकों का गुर्वादि परिवार कर रहा है ।
लेखक महाशयो ! जरा अखें खोल के सूत्रों के पाठ देखो और सौचो कि नये वस्त्र का कत्थादि पदार्थोंसे वर्ण बदलना सिद्ध होता है या नहीं ? अगर लेखकों की मान्यता हो कि यह तो कारणिक बात है, तो कहना चाहिये कि वह कारण क्या है ? शायद लेखक कहेंगे कि वह कारण मदिरादि दुर्गंध है (यानी मदिरादि दुर्गंध मिटाने के लिये वस्त्र कत्थादि पदार्थों से रंगना चाहिये ) तो यह भी गप्प है, क्यों कि सूत्र के ' णवए मे वत्थे (या) पडिग लद्धे त्ति कट्टु ' इस वाक्य में तो नवीन वस्त्र की प्राप्ति ही कारण बताया है तो तुम्हारा अभिमत ' मदिरादि दुर्गंध' को कारण किस प्रकार इस विषय में माना जाय ? यदि लेखक कहेंगे कि निशीथ सूत्र के मूल पाठ से नवीन वस्त्र की प्राप्ति रंगने का कारण कैसे निकल सकता है ? तो उत्तर यह है कि पाठ में रहे हुए " इति कट्टु " शब्द से यह अर्थ निकलता है, क्यों कि उपर्युक्त शब्द का संस्कृत में " इतिकृत्वा " यह स्वरूप बनता है, और " इतिकृत्वा " का संस्कृत पर्याय " इति हेतो: " है, इस का अर्थ " इस हेतुसे " ऐसा होता है, यह अर्थ कल्पित नहीं किंतु शास्त्र प्रतिपादित है, पाक्षिक मूत्र टीका में यशोभद्रसूरिजीने इति कट्टु " शब्द का यही अर्थ किया है, पाठ यह
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