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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
mmm.mmmmmmar "जे भिक्खू वा णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति कट्ट लोद्धेण वा कक्केण वा एहाण (वण्णेण) वा चुणेण वा उल्लोलेज वा उवदेजा वा
उल्लोलंत या उवद्वंतं वा साइजइ" यह पाठ निशीथ सूत्र के चौदहवे उद्देशे में पात्रवर्णनाधिकार में पाटण के भंडार की बहुत ही पुरानी प्रत के पत्र ३९० में है, इस में नवीन पात्र रंगने का विधान है, वस्त्रवर्णन में १८ अठार वें उद्देशे में इसी चउदवे उद्देशे का अतिदेश किया है, वह पाठ उसी प्रत के पत्र ४७ वे में इस मुजिब है
" जे एवं चउदसमे उद्देसे पडिग्गहे जो गमो भणिओ सो चेव
इह वत्थेण णेयव्यो"
अर्थ इस का यह है कि जे भिक्खू' इत्यादि चउदवे उद्देशे में पात्र संबंधी जो पाठ कहा है वही यहां पर वस्त्र के नाम से जानना; पूर्वोक्त पाठों से चूर्णिकार ने यह तात्पर्य निकाला है कि वस्त्र-पात्र को नूतनतादि कारण में तीन पसली से ज्यादा वर्णक पदार्थों से रंगे तो प्रायश्चित्त है अर्थात् उक्त कारण में तीन पसली तक से रंगने में प्रायश्चित्त नहीं है, और जब पायश्चित्त नहीं तो उस में दोष भी नहीं है, क्यों कि दोष होता तो प्रायश्चित्त जरूर होता।
इसी अर्थ को कहता हुआ बृहत्कल्प के तृतीय खंड की टीका का पाठ भी पढ लीजिये,
“ यदि विभूषार्थ वस्त्रादि रज्जति तदा प्रायश्चित्तम् " ____ यानी जो सोभा के लिये वस्त्र आदि रंगे तो प्रायश्चित्त आता है, इस से भी यही सिद्धान्त प्रमाणित होता है कि सोभा के सिवा दसरे कारण प्रसंग से वस्त्र पात्रादिक रंगे तो दोष और प्रायश्चित्त
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