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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । फिर लेखक जी अपनी साधुता का चिन्ह दिखाने के लिये भाषा-समिति का सदुपयोग करते हैं कि
" परंतु जैन भिक्षु का दादा पर दादा ही मलमलीन वस्त्र रखते थे तिसको छोडके जैन भिक्षु का गुरुने पीत वस्त्र (फकीरों का वेष ) धारण कर कितनेक अंगस्थान में श्वेत वस्त्र और कितनेक अंग स्थानमें पीत वस्त्र अपनी पूजा मानता पेट भरने के खातिर भांड चेष्टा भेष विडंबक हो कर जैनभिक्षु पणा का पद छोड-जैन भिखारी पणा किया ! ! तैसे राजेन्द्रसूरिजी नहीं करते थे."
लेखकों ने क्या यही ब्रत धारण कर लिया है कि मुंह आया अंड बंड लिख मारना ? क्यों कि न तो जैन भिक्षु के दादा पर दादा मलमलीन वस्त्र रखते थे और न उन को जैन भिक्षुने छोडा है, कारण विशेष में नये वस्त्र का वर्ण पलटना फकीरों का वेश नहीं है यह जैन शास्त्र संमत मुनियों का वेश है, अपने ही मुख से अपनी योग्यता का पता देने वाले लेखक ! नमस्कार ! बार बार नमस्कार ! इस मधुर लिखान के लिये आप को क्या पारितोषिक दूं, मुझे कुछ नहीं सूझता, सिर्फ यही कह कर संतोष मानता हूं कि ऐसे प्रियभाषी लेख आप ही को मुबारिक हो । लेखक ! प्रियभाषी लेखक ! भला आप अपनी तो बता दीजिये कि आप और आप के गुर्वादि सब लोग नये वस्र गृहस्थों के घर से ला कर वापरते हैं सो यह ! किस जैन शास्त्र की टांग तोडते हैं ? क्यों कि शास्त्र में तो साधुओं के वस्त्रविधान में प्रथम तो श्वेतमानो पेत-जीर्णप्राय वस्त्र ग्राह्य कहे हैं, और देशकालादि विशेष में नये वस्त्र को कत्थे चूने आदि से वर्ण बदल कर के भी रखना कहा है। यह द्वितीय प्रकार निम्न लिखित निशीथ के पाठ की चूर्णि से प्रकाशित होता है, वह पाठ यह है
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