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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
माओं को तो सुधारने वालों का योग जब चाहे मिल जाता है,
और कोरटा की एक प्रतिमा को सुधारने वालों का योग नहीं मिला यह आप का बचाव सर्वथा निर्माल्य और झूठा है, सुधारने वाले का योग भी मिल सकता और यह अच्छी तरह सुधर भी सकती थी पर ऐसा करना ही नहीं था फिर कैसे हो सके !।
फिर लेखक महानुभाव लिखते हैं...
"बेशक सावद्य ( पाप ) सहित काम का बोलना तो श्रीविजय राजेन्द्रसूरिजी का कम था पण मलमलीन वस्त्र तो वे नहीं रखते थे, वे तो (पांडुर पाउरण ) अर्थात् सपेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र रखते थे"
बिलकुल ही झूठ है, कौन कहता है राजेन्द्रमूरिजी सावध कम बोलते थे? कभी कभी तो वे इस प्रकार झूठी बातें उडा देते थे कि गृहस्थ लोग भी उनसे नफरत करने लगजाते थे, क्या यह सावद्य नहीं है ? या कम है ? । वस्त्र के विषय में भी लेखकों का झूठा बचाव है कि वे मलमलीन वस्त्र नहीं रखते थे जिन्होंने राजेन्द्रमूरिजी या उन के साधुओ की शक्ल देखी है वे यही कहते हैं कि यह भी एक ढुंढकमत का भाई बाह्याडंबरी मत है जो मलीन वस्त्रों से ही लोगों को फसा देता है । लेखकों का कथन किवे सफेद-मानोपेत-जीर्णप्राय वस्त्र रखते थे-सरासर झूठा है, राजेन्द्रमूरिजी जीर्णप्राय वस्त्र नहीं रखते थे किंतु साफ नया रखते थे और अब भी उन के अनुयायी आप लोगों की वही दशा है, जीर्णप्राय तो वह कहा जाता है जो गृहस्थों के लिये अनुपयोगी या कम उपयोगी हो गया हो, नया वस्त्र लेकर दशपंद्रा रोज भीतर वापरने से वह जीर्णप्राय नहीं होता, यह तो सिर्फ आप लोगों की कपट-पटुता का नमूना है।
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