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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा ।
अनेक शास्त्रों के प्रमाण मिलने पर भी राजेन्द्रसूरिजी ने कियोद्धारक गुरु नहीं किये इस का सवव क्या है ? क्या उनको अन्वेषण करने पर भी कोई त्यागी गुरु नहीं मिले ?, नहीं, यह बात हर्गिज नहीं कह सकते, भगवान श्री महावीर देव का धर्म - शासन इक्कीस हजार वर्ष तक अविच्छिन्न परंपरा से चलेगा, और जब तक वह शासन जारी रहेगा तब तक शास्त्रानुसार चलने वाले साधुओं का विच्छेद नहीं होगा यह जैनसिद्धान्त का सर्व मान्य नियम है, असली बात तो यह है कि उन्होंने अभिमान के मारे किसी के आगे शिर झुकाना मुनासिब नहीं समझा, इस लिये किसी के भी पास क्रियोद्धार करके उपसंपद् नहीं ली, लेखक जी ! यह आप के राजेन्द्रसूरिजी का लेश मात्र तो नहीं किंतु बहुत मानाभिलाषिपन है या नहीं ? |
फिर लेखक झूठी करतूत आगे करते हैं कि
" प्राचीन प्रतिमा का बहूत अवयव खंडित देखके सुधारने वाले का अवसर पर योग नहीं मिलने से गद्दी पर से उठवा कर उसका सुधारा करने के लिये पूर्वाचार्यों का अनुकरण से अन्य स्थान में स्थापित करवाना, इत्यादि तीर्थ का सुधारा अपने भक्त लोगों को उपदेश करके करना करावना यह कुछ आशातना का कारण तथा मानाभिलाषीपणा जैन शास्त्रों के न्याय से प्रतीत नहीं होता है "
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यह लेखकों की सरासर जाल साजी है, नयी प्रतिमाओं का योग तो मिल गया और पुरानी को सुधारने वाले का योग नहीं मिला यह कथन तो लेखकों के अंधश्रद्धालु भक्तों के सिवा और कोई भी नहीं मानेगा, क्यों कि ' अवसर' शब्द से ही आप की कपटी वृत्ति प्रकट हो रही है. सेंकडों बल्के हजारों जैन-प्रति
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