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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
और अतिशय स्वप्नादि कारण न होने से श्री विजय राजेन्द्र सूरिजी ने तो श्री प्राचीन तीर्थ की आशातना टालनेका उचित ( योग्य ) कार्य किया है"
वाह ! असत्कल्पना का भी कुछ पार है, लेखक जी ! कुछ सोच विचार के लिखिये महरवान ! प्रथम तो आपका कल्पित राजा का दृष्टान्त ही असिद्ध है । ख्याल करो ! क्या ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेत्रहीन होने के बाद राजगद्दी से उतार दिया गया था ? यदि कहा जाय यह बात तो नहीं हुई तो फिर आपका लौकिक दृष्टान्त असिद्ध ठहरा या नहीं ? । फिर लेखकों ने लोकोत्तर विषयक आचार्य का उदाहरण दिया पर वह भी यहां पर घटमान नहीं हो सकता, क्योंकि वह प्रतिमा तो चक्षु सहित है इस लिए चक्षुहीन आचार्य के दृष्टान्त से कदापि उत्थाप्य या गोप्य नहीं हो सकती, इस वास्ते राजेन्द्र मूरिजीने वह कार्य पुख्त विचार से नहीं किया, किंतु क्षुद्र विचार से ही किया है, और वह आशातना मिटानेका नहीं; पूर्ण आशातना करने का । हृदय में तनिक भी सौचो यह मेरा कहना असत्य नहीं है।
लेखक कहते हैं" राजेन्द्रसूरिजीने लेश मात्र भी मानाभिलाषिपणा नहीं किया"
लेखक जी! 'भी' शब्द निकाल दो फिर आपका कहना ठीक मानूंगा, क्यों कि यह बात सत्य है कि उन्हों ने लेश मात्र मानामिलाप नहीं किया, अर्थात् बहुत किया था, और यही कारण है कि उन्हों ने बाह्यवृत्त्या द्रव्यपरिग्रह आदि का त्याग कर के भी किसी भी त्यागी गुरु के पास उपसंपद धारण नहीं की, लेखक महाशय खयाल करें कि महानिशीथ, हीरप्रश्न विगैरह
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