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त्रिस्तुतिक-मत--मीमांसा ।
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स्वमादि प्रयोग वाली होनी चाहिये, अपने इस मत की पुष्टि में वे सिद्धाचल जी के मूलनायक की मिसाल देते हैं, मैं पूंछता हूं, ओर तो ठीक, पर,
" वह स्वप्नादि प्रयोग वाली होनी चाहिये"
यह आप का कथन किसी शास्त्र के अनुसार है या मात्र गप्प पुराण का अध्याय लिख दिया है ? मुझे तो गप्प पुराण ही मालूम होता है, क्यों कि कई जगह पुराने मंदिर और प्रतिमाओं की अनार्य लोग आशातना कर देते हैं, यहां तक कि उन्हें तोड भी डालते हैं. परंतु स्वप्नप्रयोगादि ऐहिक अतिशय कुछ भी नहीं होता, तो क्या वे प्रतिमा देवाधिष्ठित नहीं हैं ऐसा मानोगे ? नहीं, यह बात कदापि नहीं हो सकती, शास्त्र का लेख है कि
" जो लक्षणोपेत पदार्थ होता है वह देवताधिष्ठित होता है"
तो जिनेन्द्र प्रतिमा-जो संपूर्ण लक्षण युक्त होती है-देवताधिष्ठित न होवे ऐसा इन निर्भीक लेखकों के विना दूसरा तो कहने को समर्थ नहीं हो सकता ।
फिर लेखक अपना मन्तव्य सिद्ध करने की वृथा चेष्टा करते हैं कि
"जैसे लौकिक में राजा चक्ष्वादि हीन उत्तमांग हीन न होय तब तो राजगद्दी पर सेवन योग्य प्रायः रहता है और चक्ष्वादि उत्तमेंद्रिय हीन होने बाद-एकान्त गद्दी सेवने योग्य होता है वैसे ही लोकोत्तर में भी आचार्यादिक चक्ष्वादि इंद्रिय हीन होने बाद एकान्त सेवने योग्य होते हैं, तैसे ही लोकोत्तर देव प्रतिमा भी गद्दी पर सेवने योग्य रखने से उपवृहणात्मक सम्यक्त्व का नाश करके प्राणी तीर्थादिक की महा आशातना का भागी हो जाता है ऐसा पुरुत ( दृढ ) विचार
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