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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
प्रतिमा को मूलनायक के स्थान में क्यों नहीं पूजना ? क्यों कि न तो ऐसा किसी शास्त्र में लिखा है और न इस प्रकार की मर्यादा है, हां, तीनथुइवालों ने तो अपनी पूजा. मान्यता के निमित्त यह परंपरा जरूर खड़ी की है।
फिर लेखक अपनी शान्ति का परिचय देते हुए स्वयं जवाब सवाल करते हैं
"यहां जैनभिक्षु जैसा कोई अनाचार सवाल करेगा कि गद्दीपर रही हुई प्राचीन प्रतिमा का सुधारने वाले का योग नहीं मिलने से अंगोपांग खंडित प्रतिमा ही वहां की वहाँ गद्दीपर पूजी जाती तो क्या हर्ज होता ? इस सवाल का जवाब यह है कि जो प्रतिमा उत्तमांग नासिका प्रमुख स्वल्पांग खंडित होय और अतिशयवन्त होय, अर्थात् देवाधिष्ठित स्वमादि प्रयोग पाली का भी स्वल्पांग सुधारने के बाद गद्दी पर रही जाय तो हर्ज नहीं."
वाह रे लेखको ! जैन भिक्षु जैसा-जो आशातना करने वालों को हितशिक्षा करे वह तो आप के मत से अनाचार है तो कृपया यह बता दीजिये कि आप सदाचार किसे मानते हैं ? क्या पुरानी प्रतिमाओं को स्थान से उठवाकर नीचे रखवा दे वह आपका सदाचार है, या प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के लेख मुसलमान के पास घिसवा दे वह आप का मान्य सदाचार है ? अफसोस ! लेखक मंदिर मार्गी हो कर के भी प्रतिमाद्वेषियों का आचार कहां से सीख बैठे ? । खैर । आप अपने सवाल का जवाब क्या देते हैं उसे देखिये, वे कहते हैं अल्प खंडित प्रतिमा मूलनायक के स्थान में पूजी जा सकती है, पर, वह अतिशयवंत अर्थात
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