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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
मा भी किसी स्थान से खंडित दशा में हाथ लग गई तब मंदिर में एक स्थान पर पधरा दी गई, इस प्रकार जालोर के किले की फिर उन्नत दशा हुई जो आज तक टिक रही है, जब जालोरगह के मंदिरों की यह हकीकत है तो फिर लेखक कैसे कह सकते हैं कि उस पुरानी प्रतिमा को उठवा के नयी स्थापित की।
फिर लेखक महोदय अपना सैद्धान्तिकत्व प्रकाशित करने के लिये लिखते हैं कि
" यहां किसी को प्रश्न उत्पन्न होगा कि प्रतिमा अंगोपांग खंडित होने के बाद तो भंडारनी चाहिये ? पण पूजनीय न चाहिये तिस का समाधान यह है कि श्रीजैनशास्त्र में कहा है कि (१०० ) वर्ष के भीतर की प्रतिमा अंगोपांग से खंडित हो गई होय तो भंडारनी, परंतु सो वर्ष उपरांत की प्रतिमा का उत्तमांग खंडित न हुआ होय और उपांग खंडित हुआ होय तो भंडारनी नहीं, अपूजनीय कभी करनी नहीं,
लेखकोंने ऐसा किस जैन शास्त्र में देखा कि १०० वर्ष ऊपर की प्रतिमा को अपूजनीय तो नहीं करना लेकिन मूलनायक के स्थान से उठा देना ? । मेरी समझ में तो यह भी लेखकों की निरी डिंग ही है, क्यों कि जैनशास्त्र तो यों कहता है
" वरिससयाओ उठें, जं बिंब उत्तमे हिं संठवियं । वियलंगु वि पूइज्जइ, तं विवं निष्फलं न जओ" ॥१॥
( अर्थ ) उत्तम पुरुषों का स्थापित सौ वर्ष ऊपर का बिंब विकलांग हो तो भी पूजा जाता है, क्यों कि उस की पूजा निष्फल नहीं जाती।
लेखक जी इस बात का खुलासा करें कि पुरानी विकलांग
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