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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
ऊपर कुमारपाल भूपाल की कराई हुई अतिशयवन्त श्री हेमचन्द्राचार्य जी की अंजन शलाका सह प्रतिष्ठित स्थापित की हुई प्राचीन प्रतिमा की नासिका हाथ की अंगुली पग की अंगुली, और अंगुष्ठ खंडित होने से भ० श्री विजयदेव सूरीश्वरजी का आदेशसे, पं० जयसागर गणी ने मूल प्राचीन प्रतिमा को गद्दीपर से उठवाकर रंग मंडप में पथराई और संवत् (१६८१ ) की नूतन प्रतिष्ठित प्रतिमा श्री महावीर जी की गद्दीपर प्राचीन मूल नायक जी के स्थान में स्थापित कराई वह प्रतिमा श्रीजालोर का किल्लापर श्रीकुमारपाल विहार चैत्य में आज तक पूजी जाती है "
यह भी लिखना लेखकों की अज्ञता को सिद्ध करता है, क्यों कि न तो पुरानी प्रतिमा खंडित मानकर गद्दीपर से उठवाई
और न उस कारण उसके स्थान में नवी प्रतिमा स्थापित की गई किंतु बात यह है कि जब जुल्मी राजाओंने जालोर पर चढाई कर उसे फतह कर लिया तब श्री संघने किले पर के तीनों मंदिरों की प्रतिमाएं जैसा मौका देखा भिन्न भिन्न स्थानो में भंडार कर दी, कारण यह था कि ऐसा करने से वे जुल्मी बादशाहों की अनीति से बच जायँ । बाद जब कि राष्ट्र में शान्ति छा गई तो सहज सागर गणि के शिष्य जयसागर गणि ने अपने आचार्य श्री विजयदेव सूरिजी की आज्ञा से उन मूर्ति रहित मंदिरों की उनति की नींव डाली और संवत् १६८१ में सब से पहले श्रीमहावीर स्वामी के मंदिर में नयी प्रतिमा बिठाई, क्रमशः संवत् १६८३-१६८४ में भी श्रीविजयदेवमूरि जी ने कई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की और बाकी के दोनों मंदिरों की भी मरम्मत करवाई, बाद कितनेक अर्से के वह महावीर स्वामी की पुरानी प्रति
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