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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
का मिष करके दूर कर दें और अपनी प्रतिष्ठित प्रतिमा को लंबे चौडे लेखों के साथ विठवा दें।
फिर लेखक अपनी जूठी करतूत चलाते हैं कि
"जो प्रतिमा श्रीमान् रत्नप्रभसूरीश्वरजी ने अंजनशलाकासह प्रतिष्ठित स्थापना की थी उस प्रतिमा का पब्बासण में मूल नायक का अभाव देख के श्री विजयप्रभ मुरि जी के बारे में किस महान् गीतार्थ का उपदेश से मूलनायक जी का स्थान में दूसरी प्राचीन अखंडित अतिशयवंत आचार्य महाराज का हाथ की प्रतिष्ठित श्री महावीर स्वामी जी की प्रतिमा स्थापित की गई थी"
बिलकुल झूठ है किसी भी गीतार्थ के उपदेश से दूसरी पुरानी प्रतिमा स्थापित नहीं हुई किंतु वही स्थापित हुई जो पहले थी, मतलब यह कि महावीर स्वामी की पुरानी प्रतिमा-जिस की प्रतिष्ठा विक्रम संवत १२५ में हुई थीकिसी कारण वश वह पद्मासन पर से उठा दी या उठ गई थी, परंतु जब वह कारण निवृत्त हो गया तो सं० १७२८ में फिर उसे स्थान पर बिठा दिया, यद्यपि प्रतिमा जी के कुछ उपांग (अवयव ) घिस गये थे तथापि शास्त्र के जान भव भीरु बैठाने वालों ने उस को खंडित कह कर दूर बिठाना और नयी प्रतिमा का स्थापन-जो एक बडी भारी आशातना है-पसंद नहीं किया, अफसोस ! उसी निर्दोष और भव्य प्रतिमा को मान प्रिय राजेन्द्रमूरिजी ने स्थान से उठवा डाला और इस क्षणिक कीर्ति के आशा--पाश में फंस कर भयंकर आशातना के भागी बन बैठे !।
फिर लेखक बयान करते हैं कि " जैसे श्रीजालोर गढ के
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