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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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फिर लेखकजी महाराज अपनी कुदरत शाला में से दो चार डिंगें बाहर लाते हैं कि
“श्री कोरटाजी तीर्थ में गाम से बाहर आधा मील के करीब बाहर का मंदिर बहुत पुराणा है जिस में विद्याधर कुल के श्रीमान् रत्नप्रभ सूरीश्वरजी ने जिस लग्न में श्री महावीर स्वामीजी की प्रतिमा की स्थापना ( की ) थी वह मूर्ति बहूत वर्षों के किसी कारण योग से पव्वासण से विलुप्त हो गई।"
मैं लेखकों को पूछता हूं कि यह विचित्र इतिहास आपने लाया कहां से ? रत्नप्रभ मूरि विद्याधर कुल के थे ऐसा किसी शास्त्र में लिखा है या आप के गाल पुराण की यह एक गप्प है ? शायद गप्प ही है, क्यों कि शास्त्रों में तो रत्न प्रभमूरिजी उपकेश गच्छ के लिखे हैं और आप विद्याधर कुल के थे ऐसा लिखते हैं सो यह गप्प नहीं तो और क्या है। फिर भी देखिये, रत्न प्रभमूरिजी ने सत्यपुर ( साचोर ) और ओशियाजी में महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापित की ऐसा तो ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है पर “ कोरण्टक " में उन्हों ने प्रतिमा स्थापन की ऐसा इतिहास तो शायद लेखकों ने पाया हो तो मालूम नहीं, अगर पाया हो तो प्रकाश में लाइये अन्यथा यह भी दूसरी गप्प तो है ही।
लेखक कहते हैं कि " कारण वश वह मूर्ति पद्मासन से विलुप्त हो गई थी सो सं. १७२८ में फिर पद्मासन पर बिठाई गई " सो तो ठीक ही किया हैं, क्यों कि वे पुराने लोग राजेन्द्रसूरिजी सरीखे यशोभिलाषी नहीं थे जो पुरानी प्रतिमा को खंडित
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