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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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हासिक होने से लेखक ने उसे अपने लेख में दाखिल किया। यह एक सर्व मान्य नियम है कि किसी भी ऐतिहासिक पदार्थ को निरूपण करते समय लेखक को उचित है कि वह उसके सहायक, ध्वंसक सामग्री का वर्णन भी संक्षेप में कर लेवें ता कि पूलविषय की परिस्फुटता हो जाय, ' इसी नियमके अनुरोधसे जैन भिक्षुने अपने लेखमें राजेन्द्रमूरिजी के अनुचित कार्यों का दिग्दर्शन कराया सो अस्थान नहीं बलके लेख की स्पष्टता के लिए है। लेखक महानुभाव आर्चायादि ५ पांच पदवियों को ही शास्त्रीय मानते हैं तो सवाल यह है कि "पंडित पदवी" को आप किस में गिनोगे ? क्यों कि उस को तो आपने पहले ही शास्त्रीय मान लिया है और अब पांच को ही शास्त्रीय कहते हैं। अथवा ठीक है, आप लोगों की गुरु शिक्षा भी यही है कि पहले मन माना लिख देना और आगे जाकर कुछ और ही लिख मारना, बस ऐसे ही अपना धोंसा बजाया करना, पर याद रहे कि जैसे आप अंधपन को मान दे कर लिख देते हैं वैसे पाठक लोग कदापि नहीं करेंगे, वे बाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के अपने निर्मल नेत्रों के प्रकाश को ही मान देकर पढ़ेंगे और आपकी इन करतूतों को अच्छी तरह जान लेंगे। यदि लेखकों की मान्यता हो कि " पंडित पदवी" तो पूर्वोक्त पांच पदवियों में अन्तर्भूत हो जाती है तो फिर पंन्यास पदवी के लिए लिखकर क्यों दुःख उठाया ? क्या पंडित और पंन्यास पदवी में भैद है ? । अगर कहा जाय कि ऐसा स्पष्ट लिख देना था कि "अमुक पदवी में पंन्यास पदवी अन्तर्भूत है तो यह भी गलत है, अति स्पष्ट वार्ता को ऐतिहासिक एक लेख में स्पष्ट करना पिष्ट पेषण तुल्य है, स्पष्टता उस विषय की होनी चाहिये जो दुर्बोध-जटिल हो ।
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