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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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- वाह रे बहादुर लेखको ! मंगलाचरण तो अच्छा किया, क्यों कि यह जो प्रारंभिक अंध शब्द है वह ' अंधे हो कर इस उत्तर दान पत्र को लिखेंगे' इस आशय को सूचित करता है और आपने इस का निर्वाह भी अच्छी तरह कर लिया फिर इसे अनुचित क्यों कहें ?। ___आगे लेखक महोदय ‘जैनभिक्षु' के लेख के पंन्यासपद विषयक हिस्से का खंडन करने के लिये प्रस्तावना कर के लेख के फिकरे लिखकर कहते हैं कि
" बोया गाम के काउसगिये के ऊपरका लेख देखते पन्न्यास पदवी ( १२५१ ) में भी थी, अब इस से आगे भी कहां तक थी इस बात का पत्ता लगाना शेष रहता है । इत्यादि आशंका का लेख इतिहास में उपयोगी नहीं हो शक्ता है, इतिहासोपयोगी लेख तो तब बन शक्ता है कि जब पन्यास पदवी का पूरा पत्ता लगा के लिखे सो तो लिखा नहीं!।"
मालूम होता है ऐतिहासिक अन्वेषण का तो लेखकों ने तनिक भी अभ्यास नहीं किया, यदि किया होता तो यह लिखने का कभी दुःसाहस नहीं करते कि " इत्यादि आशंका का लेख इतिहास में उपयोगी नहीं हो शक्ता है" मथुरा के शिला लेख जो राजा कनिष्क के संवत्सर के हैं, उन्हें आज करीब १८०० अठारह सौ वर्ष हो चुके हैं, यद्यपि उन से इस बात का पता नहीं चलता कि महावीर का शासन (जैन धर्म ) कब से चला, तथापि उन से यह सिद्ध हो चुका है कि महावीर-शासन प्राचीन है,
और उसी कारण पाश्चिमात्य लोगों ने उन लेखों का बडा आदर कर के उन के आधार बड़े २ लेख, निबन्ध और ग्रन्थ लिख
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