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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
वानर के प्रति हुआ था, एक लंबे चौडे लेखद्वारा गालियों की वृष्टि कर के अपनी कोप ज्वालाएं शान्त करने का उद्योग किया, इस में भी आश्चर्य की बात तो यह है कि "कोरटा तीर्थ" लेख का लेखक जैन भिक्षु कोई ओर ही था; और इन का ज्वालामुखी किसी ओर ही के ऊपर फटा !, पत्थर किसी ने फेंका और कुत्ता किसी की तरफ़ झपट्टा । तब क्या यह उचित नहीं कि इस भयंकर भूल से इन बेचारों को बचा लेना चाहिये, बस इसी इरादे से यह लेखक इन के उस लेख की खबर लेने को तत्पर हुआ है और भूल के गंभीर कूप से उद्धार करने के वास्ते हस्तावलंबन भी दे रहा है । .. आप ने अपने लेखका नाम रक्खा है " तिर्थकोरटा जी के अनुचित लेख का समुचित उत्तर दान पत्र " अलवत्ता यह नाम ज्यादा नहीं तो हनुमान् की पूंछ जितना तो लंबा अवश्य है, अथवा यही चाहिये था; क्यों कि यह कुदरती नियम है कि जिसमें सार नहीं होता वह बाह्याडंबर से ही अपना टट्ट चलाता है, हिंदी में कहावत है " थोथे चणे वाजे घने " प्रकृत पत्र के लेखकों ने इसी कथन को चरितार्थ किया है, क्यों कि पुस्तक में एक भी सराहनीय बात नहीं आई तब लंबे नाम से ही संतोष माना।
लेखकों ने शुरुआत में ही अपनी योग्यतानुसार मंगलाचरण यों किया है..." अंधगुरु-अंध श्रद्धा वाला जैनभिक्षु ने श्रीविजयराजेन्द्र सूरिजी के उचित कार्य का अनुचित लेख लिखा जिस का उचित लेख"
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