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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
तुरत भेजावसी ने पन्नालालजीने तनखा नही दीवी वे तो लेखो कर ग्रंथ लेने सर्व चुकती कर देसी हमे एक वार कोमुदी को तरजमो पेली मेलावसी महाराजरो फुरमावणो हे के दुजा तोन्यारा २ लिखीज जावे पिण कौमुदि को तर्जमो एकठो लिखीज जावे तो ठीक सो आप ताकीद कराय लिखाय मेलसीजी ने पनालालजीने केसी के तरजमो करो कौमुदि को सो इस मुजब करो नकल भेजी हे ओर पनालालजी ने केणो लघुकोमदीको तरजमो तीरा दाप दिरिज गया ने हाल आयो नही सो मगाय मेलावसी"
इस पत्र को देखते यह मालूम होता है कि राजेन्द्रमूरिजी ब्राह्मणों द्वारा कई ग्रन्थों का तर्जुमा भी कराते थे। इस एक ही पत्र से इतना तो स्पष्ट होता है कि रतलाम की पाठशाला के अध्यापक पंडित पन्नालालजी से राजेन्द्रमूरिजी ने माघ, किरातार्जुनीय, लघुकौमुदी और सिद्धान्तकौमुदी का तर्जुमा रुपया दिला कर के कराया था।
इस से भी बढ़कर कई प्रमाण मेरे पास हैं, लेकिन विस्तार के भय से उन्हें छोड देता हूं, यदि जरूरत पड़ेगी तो उन को भी प्रकाश में लाने का प्रयत्न करूंगा।।
जहां तक बन सका है। मैं इस पुस्तक की भाषाविषयक सभ्यता तरफ भी लक्ष्य रखना भूला नहीं हूं तथापि इस पुस्तक में यदि कहीं सख्त वचन लिख गया हो तो पाठक महोदय क्षमा करेंगे, क्यों कि यह बात मेरे वश की नहीं है, इसका कारण लेखक महाशयों का ही वह उत्तरदान पत्र मानना चाहिये जो विना ही सोचे समझे उद्धताई से असभ्य भाषा में लिखा गया है । क्यों कि यह एक स्वाभाविक नियम है कि
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