________________
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
१२९
आवे वह प्रथम तो स्वयं लिए हुए सामायिक को साधुसाक्षिक कर देवे और पीछे गमनागमन की ईर्यावही पडिकमे | इस से साफ जाहिर है कि इस ईर्यावही का संबन्ध सामायिक के साथ नहीं किंतु सामायिक लेकर किये हुए गमन के साथ है। ___ अब विचारना चाहिये कि जो साधुसमीप जाकर ही सामायिक लेता है यातो जहां लेता है वहीं पूरा करता है-दूसरे स्थान पर जाता ही नहीं उस को सामायिक लेने के बाद ईयर्यावही करने की जरूरत ही क्या है ? । पाठक ! इस रहस्यार्थ से ऊपर कहे हुए दोनों मत कैसे उड जाते हैं आप देख लेवें।।
लेखकजी ! अब सच कहिये सामायिक व्रत में भी रगड़ा संवेगियोंने डाला है या आप के मतवालोंने ?।
फिर लेखक अपनी जानकारी का परिचय देते हैं कि----
" चार थुई के गच्छवालों से प्रतिष्ठित प्रतिमा को ही वांदना ! पूजना ! दूसरे तीन थुई आदिगच्छवालों की प्रतिष्ठित प्रतिमा को वांदना पूजना नहीं ! फिर प्राचीन प्रतिमा को ही वांदना पूजना पर नवीन प्रतिमा को वांदना पूजना नहीं ! इत्यादि अनेक एकान्तिक मतों के मंडन करने वाले निन्दाके पात्र होके तुम निन्द्य से अन्यथा कैसे हो सकते हो ?।" ___ यह भी लेखकों की झूठी कल्पना है कि जैनभिक्षु आदि ऐसे मतों का मंडन करते हैं, हां यह बात तो वे जरूर ही कहते हैं कि यदि पुराना मंदिर और प्रतिमाएं मौजुद हों तो वहां पर नये मंदिर और प्रतिमाएं ज्यादा बढ़ाने की क्या जरूरत है। बिन जरूरी मंदिर प्रतिमाओं का बढाना ही मानों उन की आशातना करना हैं । जैनभिक्षु का तो यह मत नहीं है कि पुरानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org