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________________ त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा । युक्तिगम्य भी यही हो सकता है, जैसे द्रव्यस्तव - जिनपूजा में शरीरशुद्धि के निमित्त द्रव्यस्नान - जलस्नान की प्रथम जरूरत है वैसे ही भावस्तव - सामायिक में भी परिणामशुद्धि के लिये भाव स्नान - ईर्यावहीप्रतिक्रमण की प्रथम जरूरत सिद्ध होती हैं । और जेसे प्रथम स्नान कर लेने के बाद पूजा करते समय फिर विनाकारण स्नान की आवश्यकता नहीं है, इसी प्रकारसे प्रथम fast कर लेने के बाद सामायिक में फिर विना कारण ईर्ष्यावही करने की जरूरत नहीं रहती । १२८ इस विस्तृत विवरण से यह सिद्ध हुआ कि ईर्यावही प्रतिक्रमण पूर्वक सामायिक लेकर फिर ईर्ष्यावही पडिकमना निरर्थक है, और ईर्यावही प्रतिक्रमण विना ही सामायिक लेकर पीछे वही करना भी पूजा के बाद स्नान और भोजन के बाद दान करने के बरावर विपरीत है । राजेन्द्रसूरिजी के अनुयायी लोग सामायिक दंडक उच्चर के पीछे वही पडकमते हैं, तब धनविजयजी का भ्रान्त भक्तवर्ग उच्चारण के पहले और पीछे एवं दो ईर्यावही करते हैं । इस प्रकार ये दोनों प्रकार का अयक्तिक विधान लेखकों के मत में प्रचलित है । “साहुसमीवे पत्तो पुणो सामाइयं करेइ ईरियावहिआए पडिक्कमति " इत्यादि पाठों को देख के लेखक जी विगैरह कितनेक लोग तो यही मान बैठे हैं कि सामायिक उच्चरने के बाद भी या बाद ही वही करनी चाहिये, परंतु वे यह नहीं सोचते कि इस ईर्ष्या का संबंध किस के साथ है ! पाठ में साफ २ कह दिया है कि जो गृहस्थ अपने घर से सायायिक करके साधुसमीप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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