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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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योग होने पर भी घर पर ही सामायिक ग्रहण करके पीछे साधु समीप जाना और स्वयं लिए हुए सामायिक को फिर साधुसाक्षिक कर लेना चाहिये, ऐसा करने का प्रयोजन यह है कि साधारण मनुष्यों के कार्य प्राय अनियमित रहते हैं । वास्तव में उन का जीवन ही प्रवृत्तिमय होता है । जो समय उन की निति का माना जाता है; बहुधा उस में भी वे निति नहीं पा सकते। इधर से उधर गये कि वह भी समय प्रवृत्तिमय बना ही था। मतलब कि वह बेचारा धर्मस्थानक में जाते जाते ही कई अनिवार्य कामों से घिर जाता है, परिणाम यह आता है कि उसकी सामायिक करने की भावना यों ही पड़ी रहती है और विवश हो कर उसे अन्य कामों में लग जाना पड़ता है, इस लिए इस दर्जे के श्रावक को समय मिलते ही सामायिक कर लेना चाहिये ।
यद्यपि पहले दर्ने के गृहस्थ भी कामों से मुक्त तो नहीं हैं तो भी उन के सभी काम बहुत करके नियमित समय में ही किये जाते हैं, यदि कोई एका एक नया कार्य उपस्थित हो भी जाय तो भी उसे नौकर चाकरों को सौंप सकते हैं, या अमुक समय के लिये छोड सकते हैं, परंतु साधारण मनुष्य प्रायः ऐसा नहीं कर सकते।
सब प्रकार के सामायिक कर्ताओं के लिए सामायिक लेने का सामान्य विधि यह है कि प्रथम ईयर्यावही पडिकम के सामायिक दंडक उच्चरे । दर असल यही विधि युक्तियुक्त और शास्त्रसंमत मालूम होता है, क्यों कि महानिशीथ सूत्र में इसी मुजिब चैत्यवंदन स्वाध्यायादि धर्म कार्यों का विधि प्रतिपादन किया है।
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