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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
प्रतिमाओं का ही वंदन, पूजन करना, नयी प्रतिमाओं का नहीं, परंतु यह मत भी उन का नही कि पुरानी प्रतिमाओं को उठा कर जमीन पर रख देना और अपने नाम के शिला लेख वाली नयी प्रतिमाओं को उन के स्थान पर बिठा देना, जैसे राजेन्द्रसूरिजी विगैरह करते थे।
'दूसरे गच्छवालों की प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को वंदन नहीं करना' ऐसा जैनभिक्षु आदि तो नहीं कहते परंतु गजेन्द्रमूरिजी ने तो ऐसा वर्ताव कई जगह किया है सो प्रसिद्ध है । ताजा दृष्टान्त लीजिये-संवत् १९५५ की साल में खरतरगच्छ के श्रीपूज्यजीने आहोर में श्रीऋषभदेवजी के मंदिर की प्रतिष्ठा की तव राजेन्द्रसरिजी उस मंदिर में दर्शन के लिए भी नहीं जाते थे, लोगों के कहने पर कि 'आप इस मंदिर में दर्शन करने को क्यों नहीं पधारते हैं ' उन्होंने उत्तर दिया । इस मंदिर की प्रतिष्ठा को हम मंजूर नहीं करते इस लिए अभी तक यह प्रतिमा वंदनीय नहीं हुई ' ऐसा कह के दूसरे भी लोगों को दर्शन के लिये वहां जाने से रोका !।
लेखकजी ! तलाश कीजिये कि यह हकीकत सत्य है या नहीं, अगर सत्य है तो आप के ही मतवाले शास्त्र विरुद्ध मत का मंडन करने वाले ठहरे या नहीं ?।
जनशासन पत्र ने जब त्रैस्तुतिकों की पोल जाहिर की, वह उन की अंधश्रद्धा को प्रकाश में लाकर हितोपदेश करने को उद्यत हुआ, तब वे बहुत ही चिढ़ाये और गभराये, परंतु सत्य बात के आगे उन का उपाय ही क्या था ?, जब वे समझ गये कि सत्य प्रकाशक 'जैनशासन' पत्र किसी प्रकार हम से दव
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