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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा |
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नहीं देंगे और मुझसे दीक्षा पल भी नहीं सकेगी । दुलीचंद - तौ भी दफ्तरीजी को अर्ज तो करें कि उन का इस बारे में क्या अभिप्राय है ।
धनराज - हां, इस में कोई हानि नहीं है ।
इस प्रकार आपस में बात करते हुए वे रत्नविजयजी के पास गये और अपना विचार उन के आगे प्रकट किया ।
रत्नविजयजी सब सुन लेकर फिर धनराज को उद्देश्य कर बोले- 'तू खुशी से दीक्षा ले, अठारा प्रकार के पुरुष दीक्षा के अयोग्य कहे हैं पर वह कथन टीकाकारों ने पीछे से लिखा है सो कारणिक और अपेक्षा का है । व्यवहार में अच्छा नहीं लगे इस लिए ऐसी मर्यादा वांधी है। सूत्रों में तो अठारा प्रकार के पुरुषों में से कई पुरुषों ने दीक्षा ली मालूम होती है। जैसे कि
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जुंगित ' ( निन्द्य ) जाति के पुरुष को टीकाकारों ने अयोग्य कहा है, और सूत्रों में ' मेतार्य, हरिकेश, चित्र, संभूत' विगैरह कई हीन से भी हीन जाति के पुरुष साधु हुए थे ऐसा देखा जाता है । इस लिये यह बात अपेक्षा की है । परमार्थ में कुछ बाध नहीं ।
धनराजजी ने कहा - ' यह आप का कथन तो शायद निश्वयदृष्टि से मान भी लिया जाय कि परमार्थ में बाध नहीं, लेकिन व्यवहार में लोग चर्चा करेंगे कि नेत्रहीन को दीक्षा क्यों दी ? तो आप क्या जवाब देंगे ? |
रत्नविजयजी बोले 'तू जानता ही है कि इस समय मैं परिग्रहधारी हूं तथापि मेरा अनिश्चित भी इरादा है कि इस परिग्रह को किसी समय छोड़ दूंगा। अगर तू अभी दीक्षा ले लेवे तो
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