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त्रिस्तुत्तिक - मत-मीमांसा ।
जब हम परिग्रह छोड़ के निर्ग्रन्थ बनेंगे तब तुझे भी क्रियोद्धार करा लेंगे । यदि कोई पूछेगा कि चक्षुहीन को दीक्षा क्यों दी ? तो हम को उत्तर देना सुलभ होगा कि ' हमने पहले ही इस को दीक्षा देदी थी तो अब अकेला कहां रक्खें १ | अगर निराधार रख भी छोड़ें तो जिनशासन की हेलना होवे इस लिए इस को भी कियोद्धार करा के साथ में रक्खा है। यदि वह कहेंगे कि यतिपन में ही इस को दीक्षा क्यों दी? तो हम कहेंगे उस वक्त हम को सूत्रों का विशेष ज्ञान नहीं था इस लिये यह मालूम नहीं हुआ कि नेत्रहीन को दीक्षा देना निषेध है । पीछे से जाना परंतु अब कुछ उपाय नहीं है । '
वास्ते तुम दोनों दीक्षा के लिये तय्यार हो जाओ । ' इत्यादि रत्नविजयजी की प्रेरणा से धनराज और दलीचंदजी ने इस प्रकार का लखत किया
" अपन दोनों को दीक्षा लेनी, जो इन्कार करे वह गौड़ीजी के मंदिर में १०१ एक सौ एक रुपया दंड के देवे
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ऊपर मुजब का लखत आहोर के तपगच्छ के उपाश्रय में संवत् १९२३ के कार्तिक सुदि ५ की रात्रि के समय लिखा और नीचे ' लिखे नाम वाले ' चार सद्गृहस्थों की साख भी लिखवायी थी । साख लिखने वालों के नाम ये हैं
शा. रूपाजी भगावतशेठ टीकमजी.
फूसाजी नेमाजी.
रुघनाथ फतावत.
इन के सिवा निम्न लिखित नाम के गृहस्थ भी उस वक्त
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