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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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यह बात बहुत लोगों के गले उतर गई तब सब श्रावकों ने मिल कर शा० ' रतना नाथाजी' और 'साध-मोतीराम का बेटा-सहज राम ' तथा एक ' मेणा ' इन तीनों को उंट भाडे करा के ' नाडोल ' भेजे । ' रतना नथाजी' आसोज सुदि १० के दिन शुवः रत्नविजयजी को ले के आहोर पहुंचा। और ' साध-सहजराम ' यति विनयविजय को लेकर आसोज सुदि १५ के साम को आहोर आया।
रत्नविजयजी ने तपगच्छ के उपाश्रय में सूत्रकृतांग (सूयगडांग ) सूत्र और सम्यक्त्वकौमुदी का व्याख्यान शुरू किया। ___अभी तक प्रमोदविजयजी ' नाडोल में ' ही थे । उपाध्याय सुरेंद्रसागरजी के शिष्य दलीचंद भी उस अरसे में आहोर थे। धनराज तलावत और शेठ वाघजी नवतत्त्व का अभ्यास करने लगे । एक वक्त दलीचंद जी और धनराज जी के आपस में इस प्रकार वातोलाप हुआदलीचंद-धना ! अपन दोनों दफ्तरीजी ( रत्नविजयजी ) के
शिष्य हो जावें? धनराज-जीवविचार सीखते समय जब 'एगिदिया य सव्वे'
यह गाथा मैने सीखी और अर्थ पढा तो मुझे संसार से बडा भय लगा, और इस से छूटने का उपाय उपाध्याय जी को पूछा तो उन्होंने कहा कि 'संसार के भय से छूट ने का उपाय तो दीक्षा है परंतु चक्षुहीन को दीक्षा देना निषेध है, अठारा प्रकार के पुरुष और वीस प्रकार की स्त्रियां दीक्षा के अयोग्य हैं, इस लिये दफ्तरीजी मुझे तो दीक्षा
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