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त्रिस्तुतिक-- मत-मीमांसा।
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अत्तर में क्या समझो ! यह कह कर अंगुली भर के उन के कपडे में रगडी तब रत्नविजयजी ने अपने कपडे के उस अत्तर वाले भाग को जमीन के साथ घिस के साफ किया ।
यह देख श्रीपूज्य क्रुद्ध हो कर वोले ऐसे अत्तर को तुम धूल में मिलाते हो !, । रत्नविजयजी बोले-मैं तो इसे मूत्र समझता हूं । ___यह गर्विष्ठ वाक्य श्रीपूज्य से सहन न हुआ-वे अपने क्रोध को नहीं रोक सके, बस फिर क्या था उसी समय रत्नविजय जी के मुख पर एक थप्पड जमा दिया।
इस से रत्नविजय जी का मिजाज बिगडा, वे गुस्से हो कर बोले ' तुम मुझे मारते हो !, मैं कैसा यति हूं! मुझे दूसरे यतियों के सरीखा मत समझना !' विगैरह यद्वा तद्वा बोलते हुए उठ के अपने गुरु के पास स्थान पर गये और सब हकीकत अपने गुरु को कही और वहांसे निकल कर ' नाडोल ' गये । यह समय पर्युषण पर्व के उतार का था।
इस अरसे में 'आहोर' से शा० 'खूबा ' जी 'समरथ' जी मंदिर के लिए पत्थर लेने को गांव ‘सोनाणे' गया था, उसने लोगों के मुख से श्रीपूज्य और रनविजय जी की खटपट के समाचार सुने, तब वह ' नाडोल ' जा कर रनविजय जी को मिला, सब हकीकत पूछी सुनी, और फिर आहोर आया, वहां आ कर उसने लोगों को कहा कि ' अपने उपाध्याय जी परलोक वासी हो जाने से व्याख्यानादि का अंतराय पड़ता है इस लिये अगर सब भाइयों की सलाह हो और रत्नविजयजी को यहां पर बुला लें तो ठीक है।'
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