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त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा ।
पीताम्बर गुरू कर श्वेताम्बर पना का लिंग ( वेष ) ही छोड दिया "
पाठकमहोदय ! यदि आप महामृषावाद का नमूना देखना चाहते हों तो लेखकों की इसी दलील को देख लीजिये मेरी समझ में इस से बढ कर असत्यता का दृष्टान्त आप को दूसरे कहीं भी नहीं मिलेगा। ___ आप को इस बारे में शंका अवश्य होगी कि यह ऐसा असत्य किस प्रकार हो सकता है, पर मैं आप की इस शंका का निराकरण भी साथ ही कर दिया चाहता हूं, आशा है कि आगे का इतिहास पढ के आप अपनी शंका का निराकरण स्वयं कर लेंगे।
तपगच्छ के श्रीपूज्य विजयधरणेन्द्रमूरिजी का विक्रम संवत् १९२३ की साल का वर्षा चतुर्मास कस्बे ‘घानेराव' में हुआ, उस वक्त बीकानेर' से यति रत्नविजयजी भी अपने गुरु प्रमोदविजयजी, गुरु भाई हिम्मतविजयजी आदि ७-८ यतियों से घानेराव चतुर्मासा करने को आये हुए थे । दर्मियान चतुर्मास में भाद्रपद शुदि ३ के दिन श्रीपूज्यजी ने अत्तर मोल लिया और रत्नविजयजी को दिखा कर कहा
देखिये यह अत्तर कैसा है ? पांच रुपये तोले के हिसाब से लिया है, ठीक है या नहीं ? '।
रत्नविजयजी ने कहा ऐसा कीमती तो यह अत्तर नहीं है। यह सुन श्री पूज्यजी ने 'इलोजी घोडों के पारखू' तुम
१ यह एक मारवाडी कहावत है, जब कोई किसी वस्तुकी परीक्षा में भूल खा जाय तब उस परीक्षक की मस्खरी करने के लिये इस कहावत को बोलते हैं ।
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