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त्रिस्तुतिक -मत-मीमांसा ।
किंतु दूसरे किसी एक आचार्य का मत दिखाने के लिए लिखते हैं।
आचार्य आप इस व्याख्या में सहमत हैं कि नहीं इस शंका का समाधान भी आचार्य के ही वचन से हो जाता है, क्यों कि 'चतुर्थस्तुतिः किलाचीना ' यहां पर ‘किल' शब्द का प्रयोग कर के उक्त व्याख्या में आप अपनी अरुचि जाहिर करते हैं, क्यों कि आचार्य श्रीमदभयदेवमूरि जी शुद्धपरंपरा मार्ग गामी पुरुष थे, उन को शास्त्र-विरुद्ध कल्पना पसंद नहीं थी, वे पूर्वाचार्य कृत चैत्यवंदनभाष्यादि ग्रन्थों को मानने वाले थे, इस विषय में आपका सिर्फ एक ही वचन उधृत कर दिखाता हूं, ता कि आप समझ लेंगे कि वे पूर्वाचार्यकृत ग्रन्थों को कैसे प्रमाण करते थे !,
" तथा संवेगादिकारणत्वादशठसमाचरितत्वाज्जीतलक्षणस्येहापद्यमानत्वाच्चैत्यवन्दनभाष्यकारादिभिरेतत्करणस्य समर्थितत्वाच्च तदधिकतरमपि तन्नाऽयुक्तम् । नच वाच्यं भाष्यकारादिवचनान्यप्रमाणानि, तदप्रामाण्ये सर्वथाऽऽगमानवबोधप्रसङ्गात् ।"
(पश्चाशकप्रकरणवृत्ति , पत्र १७ ) अर्थ- (मूत्र में चैत्यवंदन एक ही प्रकार का कहा है तो उस के जघन्यमध्यमादि भेद क्यों पाड़े गये हैं ? इस पूर्वपक्ष का उपयुक्त पाठ से आप उत्तर देते हैं-)-संवेग आदि गुणों का कारण होने से, अशठ पुरुषों का माना हुआ होने से जीत व्यवहार के लक्षण से युक्त होने से और चैत्यवंदनभाष्यकार आदिने इस का समर्थन करने से अधिकतर (ज्यादा अधिक) भी चैत्यवंदन अयुक्त नहीं है, भाष्यकार आदि के वचन अप्रमाण हैं यह भी
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