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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
नहीं कहना, क्यों कि उन के अप्रामाण्य में आगमशास्त्रों का बोध ही किसी प्रकार नहीं हो सकेगा।
प्रिय पाठक ! इस से आप समझ सकते हैं कि आचार्य अभयदेवमूरिजी पूर्वाचार्य की आचरणा, उन के ग्रन्थ और विशेष कर 'शान्तिमरि' कृत चैत्यवंदनमहाभाष्य को किस कदर से प्रमाण मानते थे।
खयाल करने की जगह है कि जिस भाष्य को अभयदेवसूरि सर्व प्रकार से प्रमाण भूत गिनते हैं उसी भाष्य में कही हुई चार और आठ थुई की चैत्यवन्दना को छोड के वे 'तीन थुई से उत्कृष्ट चैत्यवन्दना होती है चोथी थुई नयी है' ऐसा कहें यह तो उल्लुओं के सिवा कोई भी नहीं मानेगा।
आचार्य श्रीअभयदेवसरिप्रमाणित चैत्यवंदनभाष्य में कैसा स्पष्ट रीति से चार और आठ थुई से चैत्यवन्दन लिखा है सो देख लीजिये" एगनमोक्कारेणं होइ कनिट्ठा जहन्निआ एसा (१) । जहसत्तिनमोक्कारा जन्निआ भण्णइ विजेट्टा ( २ )॥ सच्चिय सक्कथयंता नेया जेट्टा जहन्निआ सन्ना ( ३ )। सच्चिय इरियावहिआ-सहिआ सक्कथयदंडेहिं ॥ मज्झिमकनिट्टिगेसा ( ४ ) मज्झिममज्झिमा उ होइ सा चेव | चेइयदंडयथुइएगसंगया सबमज्झिम या (५)॥ मज्झिमजेट्टा सच्चिय तिन्नि थुईओ सिलोयतियजुत्ता (६)। उक्कोसकणिट्टा पुण सच्चिय सक्कथयाइजुआ (७)। थुइजुअलजुअलएणं दुगुणिअचेइअथयाइदंडा जा । सा उकोसविजेट्ठा निहिट्ठा पुबसूरीहिं ( ८)॥
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