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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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किसी जगह ऐसा नहीं कहा कि 'चतुर्थ स्तुति नयी है' स्तुतिक लोग " चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना" इस प्रकार के अक्षर देख के कूदने लग जाते हैं कि अहा ! ' अभयदेवमूरिजी चोथी थुई को नयी कहते हैं, ' परंतु उन भोले आदमियों को यह खयाल नहीं कि यह वचन अभयदेवमूरिजी का मान्य सिद्धान्त है या वे किसी का मत प्रदर्शित करने के लिये ऐसा लिखते हैं ?।
पाठकगण ! आप देख लीजिये पंचाशक वृत्ति के उस पाठ को जिसे तीन थुई वाले अपना मतपोषक समझते हैं,
" चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना, किमित्याह उत्कृष्यते इति उत्कर्षा उत्कृष्टा । इदं च व्याख्यानमेके -----
तिन्नी वा कटुइ जाव, थुईओ तिसिलोइया ।। ताव तत्थ अणुन्नायं कारणेण परेण वि ॥
इत्येतां कल्पभाष्यगाथां, पणिहाणं मुत्तमुत्तीए इति वचनमाश्रित्य कुर्वन्ति "
भावार्थ-चतुर्थस्तुति शायद अर्वाचीन है, इस से क्या होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि 'उत्कृष्टा' यानी पूर्वोक्त विधि से उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है, यह व्याख्यान आप किस शास्त्र के आधार से करते हैं ? इस प्रश्न की उपस्थिति के पहले ही आप समाधान कर देते हैं कि यह व्याख्यान 'तिन्नी वा०' इस गाथा तथा 'पणिहाणं० ' इस वचन का आश्रय ले के कोई आचार्य करते हैं, अर्थात् हम ऐसा व्याख्यान नहीं करते, अन्य कोइ एक आचार्य करते हैं।
इस से साफ २ यह सिद्ध हुआ कि 'चतुर्थस्तुतिः किलार्वाचीना' यह वचन अभयदेवमूरि अपनी तरफ से नहीं कहते
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