SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा । की प्राप्ति है मोक्ष की नहीं। वास्तव तो यह है कि पूर्वोक्त देववंदन संबन्धी सर्व विधिविधान साधु श्रावकों के यथाशक्ति नित्य करने के हैं, अत एव उन में एक जगह ' साधुः श्रावको वा ' इस प्रकार साधु श्रावक दोनों का ग्रहण किया है। फिर लेखक जी कहते हैं कि " अब इस झूठा लेख का अंत में झूठी सूचना पूर्वक लेखको जैनभिक्षुजीने समाप्त किया है ! तिस का सत्य ( सच्चा ) प्रत्युत्तर दान पूर्वक · सत्योत्तरदान लेख को' हम भी समाप्त करते हैं " लेखक जी ! क्या ही अच्छा होता यदि जैनभिक्षुजी के लेख की सत्यता पर दृष्टि रख कर उस का उचित उत्तर देते !, न मालूम आप लोगों की ऐसी आदत क्यों पड़ गई है जो सरासर झूठा होता है उसे तो सच्चा कहना और सच्चे को झूठा ? । खैर, जैसी तुम्हारी मरजी। पर याद रहे कि आपकी इन झूठी करतूतों को सहन कर लेने का जमाना हाल का नहीं है, ज्यों ज्यों आप की असत्य करतूतों की विषवृष्टि होगी त्यों ही त्यों उस के ऊपर सत्यदलीलों की अमृतमय वृष्टि भी होती रहेगी। फिर लेखक अपनी अकल का नमूना दिखाते हैं " अब जैन भिक्षु जी सब हिंदुस्थान के जहां २ ' शब्दोपलक्षित ' स्थानों की साबुतियां दे के अपना लेख सच्चा करें ! तब तो इन के आत्माका उद्धार होय नहीं तो अपनी झूठी जीभडली अपना हाथ से उद्धार करें जब उद्धार होय" | जैनभिक्षु जी का कथन यथार्थ है, जब राजेन्द्रमूरिजी ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy