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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
वैयावच्चगराण, स्तुति, नमुत्थुणं, जावंति, स्तवन, जयवीयराय ॥ ६२ ॥ इस विधि से सर्वोपाधिविशुद्ध जो नित्य देववंदन करता है वह जल्दी देवेन्द्रपूजित परम पद को
पाता है। (७) पीछे 'सिद्धाण बुद्धाणं' पढ़ कर · वेयावचगराणं'
इत्यादि से कायोत्सर्ग करना बाद 'थुई ' यानी वेयावच्चकरने वाले देवों की चतुर्थ स्तुति देनी ( कहनी )।
पाठकमहोदय ! आप देख सकते हैं कि उपर्युक्त शास्त्रपाठों में कैसा साफ साफ चार स्तुतियों से देववंदन करना कहा है, फिर जैनभिक्षु चार स्तुति की प्ररूपणा करने को कटिबद्ध क्यों न होवे ?।
इन पाठों से लेखक यह सिद्ध कर सकते हैं कि यह विधि पूजा प्रतिष्ठादि कारण विशेषों में करने का है ?, नहीं, यह बात ही नहीं, इन में तो उलटा यों कहा कि ' इस विधि से जो निरंतर देववंदन करता है। वह जल्दी मुक्ति पद को पाता है।"
(देखो प्रमाण ६ ठा) यदि लेखकों की कल्पना मुजब यह विधि कारणिक होता तो इस में 'सदा' शब्द क्यों आता? क्या विशिष्ट कारण सदैव बने रहते हैं ।
दसरा यह कि उपर्युक्त चार स्तुति के देववंदन को मुक्ति का कारण कहा है, खयाल करो ! अगर यह विधि पूजा-प्रतिष्ठादि विषय का मानें तो मुक्ति का कारण कैसे कहा जाय ? क्यों कि पूजा-प्रतिष्ठादि कार्य तो लेखकों की मान्यता मुजिब द्रव्यस्तव है और द्रव्यस्तव का उत्कृष्ट फल बारवां देवलोक
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