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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
(५) पांच शक्रस्तव इस प्रकार से होते हैं-उत्कृष्टचैत्यवन्दना से
देववन्दन करने की इच्छा वाला साधु वा श्रावक जिनमंदिर आदि में जाकर यथा योग्य प्रतिलेखित और प्रमार्जित किया है स्थान जिसने, तथा नयन और मन जिसने त्रिलोकीगुरु ( तीर्थकर ) के विषे लगाया है, संवेग और वैराग्य के समूह से खडे हुए रोमाञ्चों से जिसका शरीर छा गया है, प्राप्त हुए अतिहर्ष के वश निकलते हुए अश्रुजल से जिस के नयनकमल भर गये हैं 'भगवञ्चरणकमल का वन्दन बहुत दुर्लभ है' इस प्रकार बहुमान करता हुआ, अंगोपांगों को अच्छी तरह जिसने संवरा है (ऐसा साधु वा श्रावक) योग. मुद्रा से भगवत्के आगे शक्रस्तव को अस्खलितादि गुणों सहित पढे, पीछे ईर्यावही पडिक्कम के पच्चीस श्वासोच्छास प्रमाण कायोत्सर्ग करे, पार के 'लोगस्सुजोअगरे' इत्यादि संपूर्ण कहे, बाद दोनों जानु जमीन पर रख कर कर-कमल जोड़ के अच्छे कवियों के रचे हुए अपूर्व नमस्कार-स्तोत्र पाठपूर्वक शकस्तवादि पांच दंडकों से जिनवंदन करे, चौथी थुई के अंत में फिर शकस्तव कह कर दूसरी बार भी इसी क्रम से वांदे, बाद इस के चौथी बार शक स्तव कहने के अनंतर पवित्र स्तोत्र पढ कर जयवीयराय' इत्यादि प्रणिधान पाठ कह के फिर शक्रस्तव कहे, इस प्रकार यह उत्कृष्ट चैत्यवन्दना ईर्यावहीप्रतिक्रमणपूर्वक ही होती है, परंतु जघन्य और मध्यम चैत्यवंदना र्यावही
विना भी होती हैं। (६) ईयर्यावही, नमस्कार, नमुत्थुणं, अरिहंतचेइयाणं, स्तुति, लोग
स्स, सबलोए, स्तुति, पुक्खरवरदी, स्तुति, सिद्धाणं बुद्धाणं,
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