________________
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
वेयावञ्चगराणमित्यादिना कायोत्सर्गः कार्यः, ततः 'थुई त्ति ' वैया वृत्त्यकरादिविषयैव चतुर्थी स्तुतिदीयते ।"
( भाष्यवृत्ति ) इन उपर्युक्त शास्त्र पाठों का अर्थ क्रमवार नीचे मुजब है--- (१) यावच्च करने वाले यानी जिनशासन के विषे व्यापार ( प्रवृत्ति ) वाले, तथा क्षुद्रोपद्रवों के विष समकित दृष्टियों
और दूसरों के शान्ति के करने वाले, तथा समकितदृष्टियों के और स्वपर के समाधि करने वाले, क्यों कि इन का स्वरूप ( स्वभाव ) ही यह है ऐसा वृद्ध पुरुषों का संप्रदाय है-यक्ष आम्र कुष्माण्डादि के संबन्धी ( सप्तमी के अर्थ में पष्ठी हो ने से यह भाव कि ) इन को आश्रित-अधिकृतकर के कायोत्सर्ग करता हूं, कायोत्सर्ग का विस्तार पूर्व की मवाफिक जानना । इतना विशेष कि यहां स्तुति वैयावच्च करने वाले पूर्वोक्त देवताओं की कहनी, क्यों कि इसी प्रकार
उन के भाव की वृद्धि होती है। (२) पांच दंडकों से चारथुइयों से, पांच शक्रस्तवों से और प्रणि
धान पाठ से उत्कृष्टचैत्यवन्दना होती है । (३) तथा, शकस्तव १ चैत्यस्तव २ नामस्तव ३ श्रुतस्तव ४ सिद्धस्तव ५ नामक पांच दंडकों से, चार स्तुतियों से, स्तवन
और प्रणिधान पाठ-'जय वीयराय ' इत्यादि से उत्कृष्ट
चैत्यवन्दना होती है। (४) तथा शकस्तवादि पांच दंडकों चार स्तुतियों और प्रणिधान
के करने से संपूर्ण चैत्यवन्दना होती है, यही उत्कृष्टा कही जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org