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त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा ।
अमूल्य रत्न को भी कुपात्र में नांखते जिन को तनिक मात्र विचार नहीं वे सम्यकत्व को विना बिचारे जहां तहां बेचते फिरें इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ?।।
लेखकजी ! जरा दिल में ख्याल करो कि परमात्मा के शासन को नष्ट करने वाले पीतांवरी हैं कि राजेन्द्रमूरिजी के परिवार के मलिनाम्बरी ।
फिर लेखक अपनी अज्ञता की निशानी दिखाते हैं कि
" व्यवहार समकित देने लेने की मर्यादा तो जैनभिक्षु पीताम्बरी साधुओं के गुरुपरंपरा में ही नहीं है ?"
लेखकों ने किस भव में जैनभिक्षु की गुरु परंपरा को देखा कि उस में सम्यक्त्व देने लेने की मर्यादा ही नहीं ? हां वैसी अंधाधुंधी तो नहीं है जैसी आप के मत में है, बाकी देशविरति, सर्वविरत्यादि देने के समय वह आलापक भी अवश्य ही पढा जाता है। जिसे तुम लोग सम्यक्त्व का पाठ कहते हो, न्याय से देखा जाय तो होना ही इसी मुजब चाहिये, समकित उच्चराने के बारे में जिन जिन शास्त्रों के नाम त्रिस्तुति वाले पुकारते हैं उन सब से यही सिद्ध होता है कि पहले भी प्रायः देशविरति वा सर्वविरति देने के समय में ही वह पाठ बोला जाता था न कि योग्यता विना ही त्रैस्तुतिकों की मवाफिक उसे पढ़ के समकित दे दिया जाता था।
अगर ऐसा न होता तो किसी न किसी देवता के अधिकार में वह पाठ आना चाहिये था कि 'अमुक देवताने अमुक तीर्थकर गणधर, केवली या मुनि के पास सम्यक्त्व उच्चरा' क्यों कि देवता लोग देशविरती सर्वविरतीरूप चारित्र को नहीं पाल सकते; पर
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