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त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
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एवं रु. ४००) चार सौ नाई ‘माना' के घर वालों को दे के माना को संवत् १९४१ के द्वितीय जेठ सुदि ३ तीज के दिन गांव शिवगंज में राजेन्द्रसूरिजी का शिष्य बनवाया"
अगर किसी को इस बात में शंका हो तो वे मेरे पास रहे हुए असली खत को देख लेवें, उस में साल, तिथी, नांव विगैरह सभी बातें खुलासे वार लिखी हैं ।
दूसरा यह कि जिसको ये लोग दीक्षा देते हैं उस के संबंधियों की आज्ञा की भी परवा नहीं करते, आज्ञा मिल गई तो ठीक नहीं तो चुप चाप रीति से भी उसे मुंड ही लेते हैं जिस का नतीजा यह आता है कि उस के संबंधियों को खबर पहुंचते ही वे आकर ओघा, मुहपत्ति दूर फेंकते हैं और चारित्री को फिर गृहस्थ वेश पहिना के घर पै ले जाते हैं, इस विषय के भी अनेक दृष्टान्त हैं, आहोर कस्बे के त्रैस्तुतिक श्रावक जवानमलजी बूटा के पुत्र ' मोतीचंद ' को राजेन्द्रमूरिजी ने गांव भंसवाडे' में इसी प्रकार से गुप्त दीक्षा दी थी और दीक्षित का बड़ा भाई 'केशरमल बूटा ' ओघा मुहपत्ति फेंक के उसे वापिस घर ले गया जो अभी तक संसार में बैठा है।
अभी थोडे ही महीनों की बात है, उसी जवानमलजी के पौते 'जसराज' ने राजेन्द्रसूरिजी के साधुओं के पास गुप्त रीति से दीक्षा ले ली और उस का काका मोतीचंद-जिसने पहले दीक्षा ली थी उसे पीछा घर ले गया। बडे ही अफसोस की बात है, इस प्रकार बुरा नतीजा देख के भी ये अपनी बुरी रीतियों का परित्याग नहीं करते।
पाठक महोदय ! जिन के घर में इतनी पोल है, चारित्र जैसे
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