________________
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
कहता है कि 'इस प्रकार धर्म की हानि करने वाला कार्य आप को नहीं करना चाहिये तो वे उत्तर देते हैं कि 'तुम इस बात में क्या समझो ! साधुओं का तो यही धर्म है, ज्यों त्यों करके भी संसारी को संसार छोडाना चाहिये, योग्याऽयोग्यत्व की परीक्षा देखने को जावें तब तो काम पार ही कैसे जावे ! जो हो सो हो, उसे मुंड तो लेना ही चाहिये, पीछे वह अगर चला भी जायगा तो इस में हानि क्या है ? जितना समय चारित्र पालेगा वह तो कहीं जाने का नहीं ? कुम्हार निवाह पकाता है तो यह तो होता ही नहीं कि सभी बर्तन अखंड पक जायँ, कितने फूठते हैं, कितने कच्चे रहते हैं, और कितने पकते हैं । इसी प्रकार यहां पर भी समझलो!, कोई भगेगा कोई मूर्ख रहेगा और कोई अच्छा भी निकलेगा।'
प्रियपाठकगण ! देख ली राजेन्द्रसरिजी की मान्यता ? है 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' कि नहीं ? , भला, इतना ही नहीं-ये लोग विना आज्ञा जिस तिस को मुंड लेते हैं यही बात नहीं, आज कल के आरंभी यतियों की मवाफिक सेंकडों रुपया दे कर लडकों और आदमियों को खरीदवाना भी नहीं भूलते ! इस विषय में अनेक दफे सत्य हकीकत सुनी गई है।
मिसाल
राजेन्द्र मूरिजी के एक भक्त श्रावक का लिखा हुआ खत मुझे मिला है, उस का संक्षिप्त सार यह है कि
"महाराज राजेन्द्रसूरिजी की आज्ञा से रु. २००) दो सौ मेरे पास के ज्ञान खाते के और १५०) सा. सुरतींगजी मनाजी गांव हरजी वालों की तर्फ से तथा, ५०) वडनगर-मालवा वाले बालजी के,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org