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त्रिस्तुतिक- मत-मीमांसा |
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सम्यक्त्व तो वे भी पाल सकते हैं ? फिर समकिती देवों के अ धिकार में उन के सम्यक्त्व उच्चर ने का पाठ क्यों नहीं ? आप के मत मुजब तो अवश्य आना ही चाहिये था ! परंतु ऐसा तो कहीं भी नहीं दिखता, सिर्फ वहीं उस पाठका उल्लेख है जहां साधु श्रावकधर्म (सर्वविरति देशविरति ) ग्रहण करने का अधिकार है, इस लिये लेखकों को कबूल करना होगा कि विना व्रत के केवल समकित उच्चराने का पाठ शास्त्र में नहीं दिखता ।
क्यों लेखक जी ! अब तो समझे न ? बस इसी लिये जैनभिक्षु जी की परम्परा केवल पाठ सुना के लोगों को समकिती नहीं बनाती !,
यदि आप के पास इस से विरुद्ध यानी व्रत विना भी केवल सम्यक्त्व उचराने का प्रमाण हो तो पेश कीजिये उस की समालोचना करने को हम तत्पर हैं ।
लेखकों को याद रहे कि जैनभिक्षु और उसके साथियों की ऐसी तो शास्त्रसंमत प्रवृत्तियां हैं कि आप तो क्या आप जैसे सहस्रों व्यक्तियां कटिबद्ध हो जायँ तो भी उन्हें नहीं तोड़ सकतीं ! | अब लेखक लोगों को उपदेश करते हैं
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अहो भव्यो ! आप लोग अपने २ कल्याण कर ना चाहते हो तो ऐसे जैनशासन की हिलना ( निन्दा ) के कराने वाले जैन भिक्षु का प्रसंग मत करो "
मेरा भी यही कथन है-' जो मनुष्य अपना भला चाहे वह जिनमार्गबाह्य निह्नव जैनभिक्षुओं का परिचय कदापि न करे ' । ऐसे पीतवस्त्रधारी जैन भिक्षु " इत्यादि ले के " तिस की स्थापना करने को प्ररूपणा में कटिबद्ध हुये हैं " यहां तक लेखकों ने
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