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५४/भगवान् महावीर
साधु-संघ नौ गणों में विभक्त था। इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गणधर उनका संचालन करते थे। सात गणधर सात गणों का नेतृत्व कर रहे थे। अकंपित और अचलभ्राता आठवें तथा मेतार्य और प्रभास नौवें गण का नेतृत्व कर रहे थे।
साध्वी-संघ का नेतृत्व महासती चंदनबाला कर रही थीं। भगवान् महावीर की वाणी से प्रभावित होकर सभी जातियों, कुलों और वर्गों की महिलाएं दीक्षित हुई थीं। मगध सम्राट् श्रेणिक की अनेक रानियां भगवान् के पास दीक्षित हुई थीं। अन्य राजाओं, सामंतों और श्रेष्ठियों की पत्नियां भी प्रव्रजित हुई थीं। महासती चंदनबाला ने उन सबका कुशलता से पथ-दर्शन किया।
भगवान् का संघ दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीनों धर्मों की आराधना कर रहा था। ज्ञान के विकास का दायित्व उपाध्याय' पर होता था। गण की व्यवस्था का कार्य प्रवर्तक' करते थे। धर्म-प्रचार और संघ-विकास का कार्य 'गणावेच्छक' संभालते थे। गण में दीक्षित साधओं की भावना को गतिशील बनाना और अधृति उत्पन्न हो जाने पर पुनः धृतिः उत्पन्न करना, यह कार्य 'स्थविर' का था। साध्वी-संघ के संचालन का दायित्व प्रवर्तनी' पर होता था। इस प्रकार विभिन्न पदों पर नियुक्त मुनि विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते थे। धर्म-संघ की सारी व्यवस्था गणतन्त्रीय शासन-पद्धति के आधार पर चलती थी।
भगवान् वस्तु-सत्य और व्यवहार-सत्य-इन दोनों नयों के समन्वयकर्ता थे। कुछ संघ वस्तु-सत्य का मार्ग अपनाते तो व्यवहार-सत्य का लोप कर संगठन को गंवा देते और कुछ व्यवहार-सत्य का मार्ग अपनाते तो वास्तविक सत्य से शून्य हो जाते। भगवान् वस्तु-सत्य के प्रवक्ता थे, इसलिए उनका संघ परमार्थ से शून्य नहीं था और वे व्यवहार-सत्य के प्रवक्ता थे, इसलिए उनका संघ सुव्यवस्थित और सुसंगठित था। इसी स्थिति के आधार पर नियुक्तिकार ने लिखा है
यदि जिनमत को स्वीकार करना चाहते हो तो निश्चय और व्यवहार दोनों को मत छोड़ो। निश्चयनय को छोड़ने पर तुम सत्य से वंचित हो जाओगे और व्यवहारनय को छोड़ने पर तुम संघीय संगठन से शून्य हो जाओगे।'
इसी सिद्धान्त के आधार पर आज भी जैन शासन में सत्य और संगठन-दोनों साथ-साथ चल रहे हैं।
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