________________
५२ / भगवान् महावीर
दोनों सत्य हैं। आत्मविद्या विनय देती है, यह भी सत्य है और लौकिक विद्या अहंकार बढ़ाती है, यह भी सत्य है । इन्द्रभूति जैसे ही आत्म-विद्या की सीमा में आए वैसे ही उनका अहंकार विलीन हो गया। वे विनम्र हो गए। उनमें नई-नई जिज्ञासाएं उभर आईं। वे भगवान् के पास गए और जिज्ञासा के स्वर में बोले- 'भंते! तत्त्व क्या है?'
भगवान् बोले- 'उत्पन्न होना । '
गौतम ने फिर पूछा- 'भंते! तत्त्व क्या है ? '
भगवान् ने कहा - 'नष्ट होना ।'
गौतम ने तीसरी बार फिर पूछा- 'भंते तत्त्व क्या है ? '
भगवान् ने कहा- 'ध्रुव रहना ।'
भगवान् ने इस त्रिपदी ( उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) के रूप में गौतम को अनेकान्त का बीज - मन्त्र दे दिया, अपने दर्शन का गूढ़ तत्त्व समझा दिया
!
नित्यवादी दर्शन तत्त्व को शाश्वत और अनित्यवादी दर्शन उसे परिवर्तनशील मानते थे । भगवान् को ये दोनों मत मान्य नहीं थे । उनके दर्शन में केवल शाश्वत या केवल अशाश्वत जैसा कोई तत्त्व नहीं है । जो तत्त्व है वह शाश्वत और अशाश्वत का समन्वय है । तत्त्व में उत्पाद और व्यय होते हैं, इसलिए वह परिवर्तनशील है । उसका स्वभाव ध्रुव होता है, इसलिए वह शाश्वत है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों की समन्विति का नाम तत्त्व है ।
जिसका अस्तित्व है, जो सत है, वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त होगा । उत्पाद - व्यय - शून्य धौव्य और ध्रौव्य - शून्य उत्पाद - व्यय कभी नहीं हो सकते । इस उपासना में भगवान् ने गौतम को तत्त्व के दृष्टिकोण का उपदेश दिया। इस तत्त्व - दर्शन के द्वारा गौतम में वस्तुसत्य को देखने की क्षमता उत्पन्न हो गई ।
गौतम ने अनेकान्तदृष्टि को आत्मसात् किया और उसी के माध्यम से भगवान् के सिद्धान्तों का द्वादशांगी में गुंफन किया। उसके बारह अंग और विषय ये हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org