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धर्मतीर्थ-प्रवचन/५६
धर्म का स्वरूप दो प्रकार का नहीं होता। इस द्विविध-धर्म के प्रतिपादन का आधार क्षमता-भेद है। जिनमें गृहत्याग की क्षमता होती है वह महाव्रत रूप मुनिधर्म को स्वीकार करता है। जो घर में रहते हुए संयम-पथ पर बढ़ना चाहता है वह अणुव्रत रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार करता है।
इन्द्रभूति गौतम आदि पुरुषों और चंदना आदि स्त्रियों ने भगवान् के पास मुनिधर्म तथा कुछ पुरुषों और स्त्रियों ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। भगवान् के पहले साधु और पहली साध्वी का नाम मिलता है। वैसे पहले श्रावक और पहली श्राविका का नाम नहीं मिलता।
साधना-काल में भगवान् अकेले थे। न कोई शिष्य था और न कोई अनुयायी। अब भगवान् अकेले नहीं रहे। उनके शिष्य और अनुयायी दोनों हो गए। तीर्थ स्थापित हो गया। परम्परा कहती है-भगवान् ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-इन चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की। पर प्रश्न होता है कि कैवल्य प्राप्त भगवान् के मन में तीर्थ-स्थापना की आकांक्षा शेष क्यों रही? तीर्थ का अर्थ है प्रवचन । भगवान् ने प्रवचन किया, इसलिए वे तीर्थंकर बन गए। आत्म-साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति का प्रवचन निष्फल नहीं होता। फलत: उसका आकर्षण पा तीर्थ संगठित हो गया। उसने भगवान् की वाणी को सुरक्षित रखा। आज भी उसे सुरक्षित रखे हुए हैं।
भगवान् की वाणी आत्मानुभव की वाणी है। उसमें अध्यात्म की अद्भुत गरिमा और अनेकान्त का अविरल प्रवाह है. हिंसा, एकांगी आग्रह, विवाद, कलह, युद्ध, असंतुलन, अशान्ति, भोग-विलास और आकांक्षा-ये शाश्वत समस्याएं हैं। इनके तामसिक आवरण से आवृत्त जगत् को प्रकाश-किरण की अपेक्षा रहती है। उस अपेक्षा की पूर्ति में भगवान् की वाणी सक्षम है। शाश्वत समस्याओं के सन्दर्भ में वह चिरपुराण, चिरनवीन और स्थिर आलोकपुंज है। अनेकान्त का मन्त्रदान
इन्द्रभूति गौतम प्रकाण्ड पंडित और सर्व विद्याओं के पारगामी विद्वान थे। उनमें ज्ञान का प्रचुर अहंकार था। जनश्रुति है कि विद्या विनय देती है, अहं को मिटाती है। प्रतीति है कि विद्या अहंकार बढ़ाती है, विनम्रता को कम करती है। क्या यह जनश्रुति सत्य है या प्रतीति? अनेकान्त दृष्टि से
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