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५. धर्मतीर्थ-प्रवचन
द्विविध धर्म
धर्म शाश्वत है। वह स्वयं प्रवर्तित है। उसका प्रतन किया नहीं जा सकता। यह वस्तु-सत्य है। व्यवहार का सत्य इससे भिन्न है। इसके अनुसार धर्म को और उसकी परम्परा को गतिशील रखने के लिए तीर्थ (प्रवचन या संघ) का प्रवर्तन किया जाता है। भगवान् महावीर धर्म का प्रवचन कर, धर्म-संघ का सूत्रपात कर धर्मतीर्थ के प्रवर्तक बने। उनके धर्म-संध में सबसे पहले इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह ब्राह्मण विद्वान् अपनी-अपनी शिष्य संपदा के साथ दीक्षित हुए।
भगवान् आत्मवादी थे। उनके सामने प्रथम स्थान आत्मा का था। मनुष्य का स्थान दूसरा था। भगवान् मानवतावादी थे। उनके सामने प्रथम स्थान मनुष्य का था। वे जाति को मूल्य नहीं देते थे। भगवान् के कैवल्य का संवाद सुनकर चंदना भी वहां पहुंच गई थी। वैदिक परम्परा में स्त्री को मुनि-धर्म में दीक्षित करना वर्जित था। भगवान् पार्श्व के संघ में साध्वियां थीं। पर कुछ साध्वियां साधु-जीवन से मुक्त हो विभिन्न धाराओं में जा चुकी थीं। कुल मिलाकर स्त्री के लिए संन्यास का वातावरण अनुकूल नहीं रहा। स्त्री का संन्यास-ग्रहण एक प्रकार से निषिद्ध हो चुका था।
राजकुमारी चंदना ने दीक्षित होने की भावना प्रकट की। उसके साथ कुछ दूसरी महिलाएं भी दीक्षित होना चाहती थीं। भगवान् ने उनको मुनि-धर्म में दीक्षित किया।
भगवान् ने दो प्रकार के धर्म की व्याख्या की१. अनगार धर्म-मुनि-धर्म। २. सागार धर्म-गृहस्थ-धर्म।
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