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साधना-काल/३५
को चलचित्र के दृश्यों की भांति देखा। उसका हृदय बदल गया। उसमें सब जीव समान' की भावना का बीज अंकुरित हो गया।
भगवान् महावीर पन्द्रह दिन तक चंडकौशिक के स्थान में रहे। इन पन्द्रह दिनों में भगवान् उपवासी रहे-न अन्न लिया और न पानी। विषधर भी उनके पास बैठा रहा। उसने भी कुछ नहीं खाया-पीया। पन्द्रहवें दिन चैत्री अमावस्या को विषधर की मृत्यु हो गई। तब भगवान् भोजन के लिए उत्तर वाचाला में गए। भगवान् ने नागसेन के घर खीर का भोजन किया। भगवान् अपने लिए भोजन बनवाते नहीं थे। जो सहज बना मिलता, उसे स्वीकार करते। नागसेन भगवान् को भोजन देकर प्रसन्न हो रहा था। प्रकृति ने उनकी प्रसन्नता में चार चांद लगा दिए । उसका लड़का बारह वर्षों से गुम था। बहुत खोजने पर भी मिल नहीं रहा था। भगवान् के भोजन करते-करते वह घर पर आ गया। नागसेन की प्रसन्नता आकाश को छ गई।
भगवान् ने भोजन कर वहां से प्रस्थान कर दिया। उनकी साधना में उपवास के दिन अधिक हैं, भोजन के कम । उपवासकाल में वे एकान्त, शून्य या जंगल में चले जाते। भोजन के लिए गांव में आ जाते । साधना-काल में यह क्रम चलता रहा।
भगवान् का साधना-काल बारह वर्ष छह मास और एक पक्ष का है। इस अवधि में उन्होंने अधिकांश समय ध्यान में बिताया। वे प्राय: मौन रहे। कुछ वर्षों तक अकेले रहे, कुछ वर्षों तक गोशालक उनके साथ रहा। उन्होंने सर्दी-गर्मी आदि की प्राकृतिक कठिनाइयां झेलीं। साथ-साथ तिर्यंच, मनुष्य और देव-कृत उपसर्ग भी सहे। उनकी धृति की परीक्षा के अनेक क्षण आए। उन्होंने किसी भी परीक्षा में रस नहीं लिया। उनका रस आत्मा के इतने गहरे में उतर गया कि आत्महीन परीक्षाएं उन तक पहुंच भी नहीं पाती थीं। चन्दनबाला
साधना का बारहवां वर्ष चल रहा था। भगवान् कौशाम्बी में विहार कर रहे थे। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हें जन्मना प्राप्त था। श्रमण बनते ही उन्हें पर-चित्तज्ञान (मन:पर्यवज्ञान) उपलब्ध हो गया। अब वे कैवल्य की
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