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३४/भगवान् महावीर
आकर दृष्टि से विष उगला और जिस पर विष उगला वह वैसे ही खड़ा है। इस घटना ने विषधर के रोष में उफान ला दिया। उसने फन को कसा और पूरी शक्ति से फिर दूसरी बार भगवान् पर दृष्टि फेंकी। विषधर का यह प्रयत्न भी विफल गया। विफलता ने विषधर को और अधिक उत्तेजित कर दिया। उसने तीसरी बार फिर दृष्टि से विष-तंरगें उठा ली।
तीसरा प्रयत्न भी व्यर्थ । विषधर आगे सरका। भगवान् वहीं खड़े रहे। विषधर जितना उत्तेजित था, भगवान् उतने ही शांत थे। विषधर विष-तरंगों को उछाल रहा था, भगवान् प्रेम की धार बहा रहे थे। प्रेम और क्रोध का अद्भुत संगम हो रहा था। विषधर ने उसे चूसा। यह रक्त कहां? यह तो दूध है। विषधर वितर्क में उलझ गया। दूसरी बार काटा, तीसरी, बार काटा। फिर वही दूध जैसी धार । विषधर पैर से कंठ तक भगवान् के शरीर से लिपट गया, पर उन्हें हिला नहीं सका। विषधर का अभिमान चूर हो गया। अभिमान के बिना क्रोध कैसे रहता? उसका क्रोध भी शांत हो गया। विषधर बदलने लगा। उसके बन्ध शिथिल होने लगे। प्रेम ने द्वेष पर विजय पा ली। तब भगवान् ने अपना ध्यान पूरा किया। विषधर को प्रशांत की दृष्टि से देखा। वह विनीत शिष्य की भांति पैरों के पास बैठ गया। भगवान् ने कहा-'चंडकौशिक! शांत हो जाओ। देखो, तुम क्रोध के कारण ही विषधर बने हो। तुम तपस्वी साधु थे। तुम्हारे पैर से मेंढकी मर गई। शिष्य ने उसका प्रायश्चित्त करने का अनुरोध किया। तुमने प्रायश्चित्त नहीं किया। शिष्य के बार-बार अनुरोध करने पर तुम क्रुध होकर उसे मारने दौड़े। तुम खम्भे से टकरा गए। सिर फट गया। फिर तुम इसी कनकखल आश्रम में तपस्वियों के कुलपति हुए। तुम बहुत क्रोधी थे इसलिए तुम्हारा नाम चंडकौशिक रखा गया। एक बार श्वेतांबी के राजकुमार तुम्हारे आश्रम में घुसकर फल-फूल तोड़ने लगे। तुम्हें पता चला तब तुम कुल्हाड़ी लेकर राजकुमारों के पीछे दौड़े। तुम्हारा पैर फिसल गया। तुम गड्ढे में गिर गए। तुम्हारी ही कुल्हाड़ी ने तुम्हारे प्राण ले लिये। वहां से मरकर तुम दृष्टिविष सर्प बने । तुम क्रोध के फल बहुत भुगत चुके । विषधर! इस क्रोध को केंचुली की भांति उतार फेंको और सदा के लिए शांत हो जाओ।'
चंडकौशिक को पूर्वजन्म की स्मृति हो गई। उसने सारी घटनाओं Jain Edue चडकौशिक को पूर्वजन्म की स्मृति हो गई। उसने सारी घटनाओं library.org