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________________ I जीना चाहता है। जीने का सुख प्राप्त हो तब दूसरा सुख चाहता है । मुझमें जीवन की इच्छा नहीं है इसलिए सुख की आकांक्षा भी नहीं है । जिसमें सुख की आकांक्षा नहीं है उसे दुःख का भय नहीं हो सकता। जो जीवन-मृत्यु और सुख-दुःख के प्रति सम हो चुका है, वह अपने सुरक्षा- -केन्द्र में पहुंच चुका है । सुरक्षा किसलिए? I वह अरक्षित नहीं है, फिर उसकी 'जीवन जितना स्वाभाविक है, मौत भी उतनी ही स्वाभाविक है। जो स्वाभाविक है, उससे भय क्यों होना चाहिए ? सुरक्षा जीवन के लिए नहीं, वह भय के लिए होती है। सुरक्षा वही कर सकता है जो अभय हो । जिसमें जीवन की एषणा है और मौत का भय है, क्या वह दूसरों की सुरक्षा करेगा?' श्रमण वर्द्धमान की अभयवाणी सुन नन्दिवर्द्धन अवाक् रह गया। उसने कुछ कहने का प्रयत्न किया पर कुछ कह नहीं सका। दो क्षण रुककर उसने साहस बटोरा। अपनी भावना पर चातुर्य का पुट देते हुए बोला- 'भंते! आप महावीर हैं। मैं आपकी सुरक्षा क्या कर सकता हूं? आप चाहें तो कुछ सहायता करना चाहता हूं ।' श्रमण ने कहा- 'यह नहीं हो सकता । अर्हत् दूसरों की सहायता की अपेक्षा नहीं करते। अतीत में ऐसा घटित नहीं हुआ, आज नहीं हो सकता और भविष्य में भी नहीं होगा कि अर्हत् दूसरों की सहायता से कैवल्य प्राप्त करें। वे अपने ही पराक्रम से, अपने ही पुरुषार्थ से, अपनी ही अर्हता से कैवल्य प्राप्त करते हैं और अपने ही पराक्रम से परमपद - मोक्ष को प्राप्त करते हैं । साधना-काल / ३१ इस घोषणा ने श्रमण वर्द्धमान को भगवान् महावीर बना दिया। नन्दिवर्द्धन ने कहा- 'भंते ! आप महावीर हैं। आपका संकल्प, आपकी सहिष्णुता, आपकी धृति और आपकी आत्मोपलब्धि महान् है । आप महावीर हैं हमारे जैसे लोग इतने अभय और इतने पराक्रम की बात नहीं सोच सकते। हम व्यवहार के स्तर पर जीने वाले लोग इतने निरपेक्ष नहीं हो सकते।' नन्दिवर्द्धन ने भगवान् की यथार्थ वन्दना की उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं थी । लौकिक मनुष्य व्यवहार के स्तर पर बहुत अपेक्षाएं रखते हैं, इसलिए वे सत्य के प्रति निरपेक्ष होकर चलते हैं। आध्यात्मिक मनुष्य अपनी अपेक्षाओं को सत्य के साथ जोड़ देते हैं, इसलिए व्यवहार के प्रति निरपेक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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