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________________ ३०/ भगवान् महावीर चाहता है। शाम को इन्हें छिपा दिया और जब मैं चला गया तब फिर अपने पास ले आया। कुछ संयोग ऐसे होते हैं जो आकरण ही संदेह पैदा कर देते हैं। श्रमण के पास बैलों की उपस्थिति ने ग्वाले को संदिग्ध बना दिया । इस दुनिया में न जाने कितने आकस्मिक संयोग मिलते हैं और न जाने कितने व्यक्ति उस ग्वाले की भांति संदेह की कारा में बन्दी बन जाते हैं। ग्वाले ने सोचा- यह श्रमण बैलों को अपने साथ ले जाना चाहता है। शाम को इसी ने बैल छिपा दिए थे । अब यह इन्हें लेकर चले जाने की सोच रहा है । इस कल्पना ने उसे भूत बना दिया । वह रस्सी से श्रमण को मारने के लिए दौड़ा। संयोग ऐसा बना कि इधर ग्वाला रस्सी को आकाश में उछालता हुआ आया और उधर नन्दिवर्द्धन आ पहुंचा। कुछ लोग कहते हैं-इन्द्र आ पहुंचा। नन्दिवर्द्धन आया हो या इन्द्र आया हो - कोई आया, यह वास्तविकता है । नन्दिवर्द्धन ने उस ग्वाले को रोका और समझा कर भेज दिया। फिर वे बोले—‘भगवन् ! कल तक आप राजकुमार की स्थिति में थे। ग्वाला तो क्या, कोई सैनिक भी आपके सामने आंख उठाकर नहीं देख सकता था। आज आप एक अकिंचन स्थिति में है । आपके पास कोई सुरक्षा का साधन नहीं है । यह बहुत ही दयनीय दशा है। इसे मैं कैसे सह सकता हूं? आप मुझे आदेश दे I मैं आपकी सुरक्षा की व्यवस्था करूं । श्रमण वर्द्धमान के होठों पर स्मित फूट पड़ा । वे बोले-' - 'सुरक्षा की व्यवस्था किसलिए? मैंने समता का मार्ग चुना है, मैंने अहिंसा का पथ अंगीकार किया है, फिर सुरक्षा कौन करेगा? किसकी करेगा? मैं अब शरीर में नहीं हूं। मैं अपने-आप में स्थित हो गया हूं। जब मैं शरीर में था तब मुझ तक पहुंचते थे - जीवन की इच्छा और मौत का भय, सुख की आकांक्षा और दु:ख का भय, प्रशंसा की कामना और निंदा का भय, पाने की लालसा और खो जाने का भय। अब मुझ में जीवन की इच्छा नहीं है । और जब जीवन की इच्छा नहीं है तो मौत का भय कैसे होगा ? मौत से वही डरता है जिसमें जीवन की इच्छा होती है । मैंने जीवन और मृत्यु को साक्षात् देख लिया है। उनके प्रति मेरा आकर्षण समाप्त हो चुका है। 'जिसमें जीवन की इच्छा नहीं है उसमें सुख की आकांक्षा भी नहीं होती । सुख की आकांक्षा जीवन की इच्छा का ही एक बिन्दु है। आदमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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